दर्द और पीड़ा

क्यों दुनिया में दर्द और पीड़ा है और विशेष करके हमारे व्यक्तिगत जीवन में ऐसा क्यों है इस जटिल सवाल का जवाब देना और वो भी इस छोटी ब्लॉग में यह मुश्किल है. इस विषय पर कई किताबें लिखी गई हैं और ये प्रश्न जबाब के लिए भीख माँग रहा है. इस ब्लॉग के द्वारा मेरा उद्देश्य यह है कि लोग अक्सर अपने दर्द और पीड़ाके अस्तित्वको भगवान के साथ जोड़कर उनके प्रति एक गलत धारणा रखते हैं.

जब दर्द दुख, और बुराई की समस्या से निपटने की बात आती है, वहाँ कई चुनौतियां होती हैं जो इस बार पर निर्भर करती हैं के हम इसको इश्वरकी उपस्थिति और उनका हमारे साथके सम्बन्धको कैसे देखते हैं. यह उनकी संप्रभुता और अच्छाई के साथ साथ उनकी वास्तविकता पर ही सवाल खड़ा करती है. एक और विचार जिसको हमें ध्यान देना चाहिए वो ये है की अगर भगवान मौजूद हैं और वो इस पीड़ाको अनुमति क्यों देते हैं, तो क्या अच्छाईको अनुमति देने के लिए भी क्या वही जिम्मेबार हैं?

बाइबलके परिप्रेक्ष्य से जो मेरी इस समस्या को हल करनेका तरीका है वो ये है के बुराई एक मौजूदा सच्चाई है जिसकी सुरुवात समय की शुरुआत के साथ ही हुआ था. बुराई के साथ साथ दर्द और पीड़ा भी रहते हैं. यदि आप सृष्टिके खाते का अध्ययन करेंगे तो आप देखेंगे की इश्वरने जो सुरुवात में बनाया था वो बहुत अच्छा था और उन्होंने जब मानवको बनाया तो उसे विकल्पों में से चुननेकी क्षमता देदी और आप जानते हैं के जिस किसीके पास भी विकल्प हो वो अपनी संस्कृति पर प्रभाव डालसकता है. बेशक इस प्रभावके परिणामस्वरूप अंततः मानावने भगवान की अच्छाईको ठुकराते हुए अपनेआप और सृष्टि के सभी पर अभिशाप लाया. इस अभिशाप के एक परिणामके स्वरुप मानावने खुद को भगवान से विमुख करने का प्राकृतिक क्षमता पालिया. बुराई की साजिश के लिए मानव जाति की योगदान के साथ साथ एक दूसरा दुश्मन अर्थात शैतान भी है. वह एक विरोधी है जो परमेश्वर और उसकी रचना की भलाई के विरोध में काम करता है. वह अपने राक्षसी साथियों के साथ भगवान के लिए एक आध्यात्मिक समकक्ष के रूप में देखा जाता है और भले ही वे नग्न या प्राकृतिक आंखसे नदिखे पर वे वर्तमान और हमारी दुनियाके एक सक्रिय वास्तविकता हैं और मानव जाति और प्रकृति पर कहर लारहे हैं. जब राक्षसी और मानव तत्व परमेश्वर के दुश्मन के रूप में एक दूसरेके साथ खुशी खुशी शामिल होजाए तो एक जुड़ाहुआ प्रभाव बनता है जिसके परिणाम स्वरुप मानव की सबसे बड़ी भ्रष्टता और दुष्टता है.

इन सबके साथ यह स्पष्ट है कि इश्वर अपनी संप्रभुता में कम से कम एक मौसम के लिए ही स्वतंत्र इच्छाका मौका देते हैं. भगवान के बारे में एक दिलचस्प विशेषता या पहलू यह है कि वह अनन्तके न्यायाधीश हैं जो बिलकुल निस्पछ हैं. समाज की बुराई कर्ताको इश्वरके भविष्य के न्याय में अपने कृत्यों के विषय में जवाबदेही होना पड़ेगा और हमें भी अपने कर्मोंका खाता देना होगा. तो वैसे भी ये कहना चाहिए की इश्वर मानवजातीको उसके अपने फैसलों पर और उसने ईश्वरके अधिनको स्वीकार करके अपना जीवन बिताया या फिर उनके विद्रोह में इसपर आधारित रहकर न्याय करेंगे. तो फैसले में भगवान की संप्रभुता पूरी तरह से प्रयोग किया जाएगा यदि इस जीवन में नहीं तो आने वाले जीवन में.

एक बात जो हमें बुराई और दर्दको ईश्वरकी संप्रभुता और अच्छाईसे जोड़कर देखते वक्त विचार करना चाहिए वो खुद के विषयसे शुरू होता है. इस सवाल को अगर हम हमारे ही जीवन में व्यक्तिगत रूप से एक निष्पक्ष मूल्यांकन करेंगे तो हमें खुद से पूछना पड़ेगा के हमने हमारे अपने जीवन में कोई बुराई तो नहीं बनाई? की हमने किसी भी हद तक और किसी भी समय पर भगवान का उल्लंघन किया है?  क्या हम निर्दोष हैं? क्या हम किसी के सीकार हैं या फिर हम भी पाप अपराधों के अपराधि हैं? हमने हमारी दुनिया में पीड़ा को खत्म करने में क्या मदद किया है ? बाईबल भगवान की दस आज्ञाओंको संदर्भित करता है और इस स्तर पर सभी लोगों ने इंसान और परमेश्वर के विरुद्ध कुछ हद तक पाप किया है. इसलिए हम हमारी दुनिया में इन सब अभिशाप या  दु:ख के लिए जिम्मेदार हैं.

हमें अन्त में यह देखना चाहिए कि खुद परमेश्वर ने यीशु के व्यक्ति के माध्यम से खुदको यातना के एक मानव साधन अर्थात् क्रूस पर मानवता की पीड़ा में दर्द महसूस करने की अनुमति दी. यशायाह नबी का कहना है कि यीशु दु: ख से भरे एक आदमी थे और दु: ख से परिचित भी थे . काफी दिलचस्प बात तो ये है के इश्वर ने खुद को जान – बूझकर दर्द और पीड़ा के मानवीय तत्व के अधिन में रखा और ये कहा के उन्होंने हमारे साथ सब कुछ का सामना किया. उनका दर्द हमारे लाभ के लिए अंततः साबित हुआ क्योंकी उन्होंने अपना ही जीवन हमारे पापी जीवन जिसके लिए पवित्र और सर्वोच्च न्यायाधीश के आगे हमें दोषी ठहराया जाता उसके बदले में एक फिरौती के रूप में देकर परमेश्वर के धर्मी और सही न्याय को पूरा किया. हालांकि हम दुश्मन थे फिर भी वो परमेश्वर और एक दूसरे के साथ हमारे मिलन के लिए मर गए और ये बस अयोग्य प्राणियों के प्रति उनकी दया और अनुग्रह की वजह से संभव हुआ. इस से एक व्यक्तिको ये अनुमान लगाना चाहिए के इश्वर बुराई के आगे भी अच्छे और संप्रभु रेहते हैं और इस बात में कोई विवाद नहीं है.

जो कुछ भी इस मामले पर  हमारा दृष्टिकोण हो ,ये अच्छे परमेश्वर हमें एक नया आकाश और नई पृथ्वी देंगे और किसी दिन सब दर्द, पीड़ा और दुख को हटाकर परम शांति देंगे. बेशक यह स्पष्ट है कि ये सब अभी तक नहीं हुआ है लेकिन फिर भी यह हमारी आशा है और यह आगामी क्षितिज पर है . एक बात हम आज और अभी सुरक्षित कर सकते हैं कि अगर हम येशुको अपने प्रभु और मुक्तिदाता के रूप में स्वीकार करके उनकी इच्छा पूरा करते हैं तो वो हमारे पापी दिलको बदल देंगे. जब वह हमारे दिलको परिवर्तन करेंगे तो हमारे अपने व्यक्तिगत जीवन में जो अभिशाप है वो उलट जाएगा और इश्वर हमारे भीतर अपने अच्छाईका उत्पादन करेंगे और वो भी इस हद तक के हम हमारे दुश्मन से प्यार कर सकते हैं.

मैं एक ‘शहीद की आवाज’ नामक समूहका समर्थन करता हूँ और उनके आंकड़ों के आधार पर कहा जा सकता है की ऐसे ३००००० ईसाइ हैं जो अपने विश्वास के लिए हरेक वर्ष पीड़ित किए जाते हैं. अब एक शहीद सिर्फ ऐसा कोई नहीं है जो विश्वास के लिए मरते है बल्कि यह वो सब हैं जो अपने विश्वास के लिए अमानवीय व्यबहारका सामना करते हैं. इसमें नौकरी, परिवार, घर,आदि का खोना या फिर शारीरिक और भावनात्मक यातना आदि हो सकता है. उनकी बस इतनी दोष है की वो ईसाई हैं और वो एक ऐसे शत्रुतापूर्ण संसार में रेहते हैं जो उके विशवास के प्रति असहिष्णुता से भरे हुए हैं. कैथोलिक मत में चला कुछ ऐसे ही बातें हैं जो क्रूसेड और धर्माधिकरण लगायत अन्यको भी सताते थे. फिर भी मसीह ने कभी भी इस तरीके से उनके राज्य के लिए लड़नेको नहीं बोला और उन्होंने ये भी कहा की हमें उनके चेलों के रूप में हमारे दुश्मनसे भी प्यार करना चाहिए और दूसरा गाल आगे कर देना चाहिए. तो वो सभी जो मसीह के दावे करते हैं, लेकिन दुनिया की तरह शत्रुतापूर्ण व्यवहार भी करते हैं वो वास्तव में उनके अनुयायि नहि हैं. एक तथ्य बात तो ये है के बहुत से ये शहीद जिनको सताया जाता है वो उनके अत्याचारीको माफ करके उनके लिए प्रार्थना करते हैं.

वैसे भी हम पीड़ा के लंबाई और चौड़ाई के बारे में प्रश्न तो उठा सकते हैं पर अगर अनंतकी बात करें  तो ये क्षणभंगुर है. बाइबल धुवां के एक वाष्प के रूप में मानव जीवनको परिभाषित करता है. प्रेरित पौलुस ने कहा कि हमारे हल्का और क्षणिक मुसीबतें हमारे लिए एक अनन्त महिमा लारहि है जो उन सबसे बोहोत ज्यादा है. फिर भी बहुत लोगों से ज्यादा दुःख तो उन्होंने ही पाया क्योंकि उनको ५ बार कोड़े लगाए गए, ३ बार छड से पीटा गया , एक बार उनपर पत्थराव किया गया और ३ बार उनको क्षतिग्रस्त किया गया था. वह अपने मिशनरी सफर के दौरान अधिकांस समय खतरे में थे, जब वह दूसरों के कल्याण को बढ़ावा देते थे. ये मुझे उन मानवीय मदतों की याद दिलाती है जो चर्च के माध्यम से बड़े पैमाने पर पूरे दुनिया को मिल रहा है और परमेश्वर या मसीह का उनके दिल पर प्रभावके बिना ये मदत आज दुनिया के लिए संभव नहीं होता. यह रूपांतरण के लिए एहसान नहीं है. मैंने अपनी सेवानिवृत्ति के साथ ७०००० डलर प्रति वर्ष बनने वाला काम इज़राइलके तेल अवीव सेहेर में भोजन और कपड़ों के वितरण केंद्र में स्वयंसेवा करने के लिए छोड़ दिया और बोहोत से लोग तो प्रभुमें नहीं आए पर हमने बांटना और सेवा देना जारी रखा.

अंत में मैं ये कहना चाहूँगा की कभी कभी दर्द और पीड़ा अच्छाई का एक बचाने वाला  कार्य उत्पादन कर सकता है . इस बातको समझाने के लिए कई उदाहरण है पर जो मैं अक्सर सोचता हूँ वो ये है के किसी दुर्घटना के बाद वहाँ पर ‘रोकने’का संकेत रखना चाहिए. दुर्भाग्य से किसी दूसरे के लिए किसी और को पीड़ित होना पड़ा और यह इश्वर ने हमारे लिए अपने पुत्रको पीड़ा सहने की इजाजत देके जो किया ऐसा सुनाई देता है जिसमें फाइदा हमारा ही हुआ.

वैसे भी यदि इस सब के बाद भी अगर बात समझ में नहीं आता है तो हम जो कर सकते हैं वो है इश्वर पर भरोसा. यह उसी तरह है के जब हम छोटे थे और हम जीवन के बारे में बातें समझ नहीं पाते थे , लेकिन हम हमेशा हमारे माता पिता को हमें प्यार और सुरक्षा देने के लिए भरोसा करते थे. बिलकुल यही इश्वर चाहते हैं के हम उनके साथ करें जब हम संकट के बीच में होते हैं. यहां तक कि अगर हमारे पास हर सवाल का जवाब होता तो क्या उसे हल करने के लिए पर्याप्त होता. परमेश्वर हमारी बुद्धि के बारे में चिंतित नहीं हैं जितना वो हमारे दिल के बारे में चिंतित हैं और इसी बात में दुविधा की कुंजी निहित है. चलो बस भगवान पर भरोसा रखें.

 

 

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