Archive for the ‘हिंदी-Hindi’ Category

बौद्ध संसाधनें

Saturday, March 31st, 2012

ऑडियो संसाधन

 

लिखित बाइबल

 

“यीशु की फिल्म”

 

देवताओं मुक्ति डाटा की “चार आध्यात्मिक कानून” योजना

बुद्ध एक प्रबुद्ध

Saturday, March 31st, 2012

कुछ लोगों के लिए बुद्ध एक देवता हैं, लेकिन व्यावहारिक रूप से बात करें तो सिद्धार्थ गौतम या सिद्धार्थ गोतम एक नास्तिक थे और इसलिए वह खुद को एक देवता के रूप में नहीं देखते थे. उन लोगों के लिए, जैसे के बुद्ध, जो एक नास्तिक या अज्ञेयवादी थे मैं आपको चुनौती देता हूँ बहुत से ऐसे ब्रह्मांडी और सौद्देश्यवादी तर्कों का सामना करने के लिए जो मैंने पहले ही अपने दुसरे लेखों में बताया है.

Atheist and Agnostic

यदि हम ये निष्कर्ष निकालते हैं कि इश्वर मौजूद हैं तो हमें उनकी तरफ ऐसे देखना चाहिए जैसे के वो हमारे जीवन को सही दिशा में ले जाने के लिए गुरुओं और बुद्ध की तरह ना होकर सही मार्गदर्शन देंगे. 

इसके अलावा वो जो बुद्ध को सम्मान देते हैं उन्हें ये कैसे पता है के उनके बातों को संरक्षित करके रखा गया था क्योंकि उनके मरने के ४०० साल तक भी उनके शब्दों को मुद्रांकन नहीं किया गया? ये बात मौखिक परम्परा को उभरने के लिए बहुत ज्यादा समय देता है जो पौराणिक अनुपात की कहानियों के लिए दरवाजे खुले छोड़ देता है. इसके अलावा उनके बातों में ये भी सिखाया गया है के यदि किसी को उनके शिक्षाओं के कुछ पहलुओं में कोई मूल्य अगर ना दिखाई दे तो उन्हे उस बात की उपेक्षा करना चाहिए. तो कैसे एक व्यक्ति जो सत्य का दावा करता है वो वस्तुगत रूप से अपने आप पर अटल नहीं रह सकता?

इसके अलावा बुद्ध की इन शिक्षाओं की वजह से कई अलग तरह के विचारों और संप्रदायों का गठन हुआ है जिनके सोच विरोधाभासी हैं.

शायद इसका वजह ये है के इन विविध और काफी ज्यादा संसाधनों में ही कुछ विरोधाभास है और इसने अपने ग्रंथों के भीतर के मतभेदों को मिलाना अगर असंभव नहीं तो मुश्किल जरूर बनाया है.

मुझे तो ये सोच कर आश्चर्य हो रहा है के क्या खुद बुद्ध भी उन ग्रंथों को पहचान पाते जिसके रचियता का श्रेय उनको दिया गया है. 

वैसे भी एक सवाल तो जरूर पैदा होता है के क्या बुद्ध सच् में प्रबुद्ध थे या फिर सिर्फ एक जगे हुए इंसान थे? ये कैसे उनको या फिर किसी और को पता चला के वो निष्पक्ष रूप से उस स्थिति तक पहुंच गए थे या फिर उस स्थिति को उन्होंने हासिल कर लिया था और एक इंसान इस आध्यात्मिक घटना के मात्रा को कैसे नाप सकता है? प्रबुद्ध का दावा आत्मज्ञान का भ्रम भी तो हो सकता है क्योंकि इस आध्यात्मिक स्थिति को मानकीकरण करने के लिए कोई भी मापदंड नहीं है.

यहां तक कि बुद्ध खुद भी निर्वाण जैसे बड़े शब्दों को परिभाषित नहीं कर पाए थे सिवाए ये कहने के की वो क्या नहीं है. यदि आत्मज्ञान पाने वाले ने भी इंसान के परम भाग्य को परिभाषित नहीं कर पाया तो एक इंसान कैसे इस बात को लेकर यकीन कर सकता है के वही वो वास्तविक स्थिति है जिसमें उनको जाना है?

क्या यह संभव है कि ये धार्मिक विश्वदृष्टि केवल एक झूठ या धोखा है जिसने निराशावादी और शून्यवादी दर्शन से इंसान के खुद के इच्छाओं को कतरने के माध्यम से कीमती जीवन बर्बाद किया है सिवाए इसके के वो जिंदगी के उपहार को खुशी से मनाएं?

वास्तव में इच्छा को कभी नहीं बुझाया जा सकता है और वो भिक्षुओं जो आध्यात्मिक अनुशासन की एक मठवासी जीवन शैली के लिए प्रतिबद्ध हैं उनमें भी चार महान सत्य के उपदेशों को बरकरार रखते हुए इच्छित निर्वाण की स्थिति पाने के लिए महान आठ गुना पथ पर चलने की इच्छा होती है.

अपने आप को इनकार करने का दर्शन तो बौद्ध सोच के साथ ही आ सकता है, लेकिन व्यावहारिक रूप से क्या वो लोग अपना जीवन इन सिद्धांतों के आधार पर जीते हैं?

इसके अलावा एक व्यक्ति कैसे अनिक्का/अनित्य या फिर अंतत/अनात्मा जैसे विचारों को साबित कर सकता है? अंतिम विश्लेषण में क्या ये सिर्फ एक अतर्कसंगत धार्मिक शब्दजाल और शब्द है या फिर सच है? क्या पूरे जीवन को सिर्फ एक स्थानांतरित होने वाले छायाँ के भ्रामक दायरे के रूप में व्याख्या करना चाहिए जिसमें स्थिरता और स्थायित्व के अवधारणा के लिए कोई जगह नहीं है? फिर भी क्या बुद्धिस्ट भी इन आदर्शों को मानते हैं या फिर ये नियम उनके जीवन के हरेक दिन का प्रतिनिधित्व करता है?

इस दर्शन के दुख से बचके आगे बढ़ने के लिए अगर ध्यान दिया जाए तो वो सुखवाद की सामग्री के लिए नकारात्मक समिकरण का एक हिस्सा होगा जो दुःख और पीड़ा को कम करके सुख को बढाने में लगा रहता है. 

दर्द और पीड़ा के इस अवधारणा के बारे में बात करें तो इन सब को तभी माना जा सकता है जब अच्छाई और सुख के विरोधात्मक तत्व वहाँ पर मौजूद हो नहीं तो हमारे पास ऐसा कुछ नहीं रह जाता है जिसको हम दुःख या पीड़ा के रूप में समझें. तो अगर अच्छाई और खुशी कुछ रूप में हमें मिल सके तो क्या वो दुःख के वजाए खुशी की बात नहीं है क्योंकि हम गिलास को आधा खाली के रूप में ना देख कर आधा भरे हुए के रूप में देख रहे हैं? क्या इच्छा को पूरी तरह छोड़ देने के वजाए हमें जिंदगी के सकारात्मक पहलु को गले नहीं लगाना चाहिए? सिर्फ इसलिए कि जीवन बाधाओं से भरा है इसका मतलब यह है कि हार स्वीकार कर लेना और दौड छोड़ देना बेहतर है या फिर उस चुनौती को लेकर जिंदगी के इन बाधाओं को पार करके आगे बढ़ना बेहतर होगा? क्या आपको पता है के कभी कभी सुन्दर चीजें हमें पीड़ा के वजह से ही मिलता है पर एक इन्सान को अगर ये अनुभव ना मिले तो जिन्दगी में पीछे हटना कितना माननीय होगा? हम ने ऐसे महान नायकों को देखा है और उनकी प्रसंशा की है जिन्होंने दूसरों के फायदे के लिए अपनी जान कुर्बान कर दिया जैसे के येशु ने क्रूस पर अपने मृत्यु का पीड़ा सह कर किया. यह मानव जाति की ओर से उन्होंने किया था जिसमें उन्होंने हमारे पाप और अपराध का भार अपने आप पर ले लिया ताकि हम उस अनन्त पीड़ा के अभिशाप से बच सकें और उन्होंने स्वर्गीय राज्य के अनन्त आनंद को हमारे हिस्से में डालने के लिए ऐसा किया था. 

मैं समझ सकता हूँ के दर्द और पीड़ा एक बुराई है जो इस दुनिया और अस्तित्व का एक हिस्सा है, लेकिन इसे कोई जांच किए बिना या इस बुराई से बचाके छोड़ देना नहीं चाहिए जो हमारे और हमारे दुनिया में से इस समस्या का हल करने के लिए कुछ नहीं करता है. हमारी उर्जा और बलको रोगिओं के लिए अस्पताल बनाने, गरीब लोगों के लिए खाना, बैंक और आश्रय बनाने और छोड़े गए बच्चों के लिए अनाथालय बनाने में खर्च करना चाहिए और उन लोगों के लिए नकारात्मक सोच नहीं रखना चाहिए जो खुद को ऐसे दुर्भाग्यपूर्ण परिस्थितिओं में पाते हैं.

इसके अलावा एक मठ में रहने से मानवीय पीड़ा की समस्याओं को हल नहीं किया जा सकता है और अलगाव एक रक्षात्मक तरीका है सिवाए इसके के इन मुद्दों से निपटने में एक प्रगतिशील दृष्टिकोण रखना चाहिए.

ईसाई धर्म ने सिवाए ऐसा सोच रखने के की दूसरों की मदत करने से दूस्टता को बढ़ावा मिलता है क्योंकि वो इच्छा(तन्हा/तृस्ना) को बढाता है या फिर लोग पीड़ा सह रहे हैं क्योंकि वो उनके कर्मों का नतीजा है, अपना ऐसा स्थिति रखा और नेतृत्व लिया के मानवीय सहारा प्रदान करके दूसरों के जीवन को अच्छा बनाया जाए और दुखिओं के दुःख को कम किया जाए.

पीड़ा एक शत्रु हो सकता है पर विडम्बना ये है के इच्छा को कतरके फेंक देने से सिर्फ पीड़ा को बढ़ावा मिलता है जिससे बुद्ध धर्म भागने की कोशिश कर रहा है.

इस दर्शन पे जोड देने के लिए एक और विडंबना यह है कि बुद्ध जो दुख के स्रोत और उसको कैसे मिटाया जाए इस बात की खोजी करने निकले थे वो खुद दर्द को पैदा देने के लिए अपराधी थे और उनके कार्य उनके मिसन के विरोधाभासी थे क्योंकि उन्होंने अपने पत्नी और बच्चे के साथ खुद के परिवार को त्याग दिया और अपने खोज को पाने के लिए उन लोगों के जीवन को मुश्किल बना दिया.

मेरी अंतिम विश्लेषण में बुद्ध धर्म अपने सरल रूप में अहंकारपूर्ण और स्वार्थी लगता है क्योंकि भले ही वो एक बुनियादी नैतिक संहिता रखता है और सम्मान के साथ दूसरों को देखता है पर ये ऐसा स्वयं के व्यक्तिगत स्वार्थ को पूरा करने और खुद के समस्या को हल करने के लिए करता है ताकि निर्वाण नामक चीज उनको मिल सके और उनके खुद का फैदा हो सके. 

तो अगर बौद्ध के लिए परम लक्ष्य और प्रेरणा अपने खुद के पीड़ा को हटाना है तो दूसरों के साथ बातचीत में नैतिकता को सिर्फ अंत हासिल करने के लिए एक साधन के रूप में देखा जाना चाहिए.

फिर भी यीशु मानवता की ओर एक अलग धारणा रखते थे जिसमें वो खुद की सेवा कराने के वजाए बिना कोई स्वार्थ दूसरों की सेवा करते थे और दूसरों के लिए उन्होंने अपना जीवन भी एक फिरौती के रूप में दे दिया.

अंत में बौद्ध के अनुसार जवाबदेहीता या न्याय का अवधारणा कर्म और पुनर्जन्म की प्रणाली के माध्यम से आता है .

मेरे लिए इस बात पर विश्वास करना इतना बड़ा विरोधाभास लग रहा है के दलाई लामा जैसे सम्मानित आध्यात्मिक नेता निर्वासन में हैं या फिर साम्यवादी चीन के लोगों द्वारा किए गए तिब्बती बौद्ध नन के बलात्कार पिछले जनम के कोई कर्म का नतीजा है. 

इसके अलावा, मैं सोच रहा हूँ के कैसे एक नास्तिक प्रतिफल के इस प्रणाली में अपने आप को पा सकेगा जो के एक सर्वोच्च परमेश्वर को इनकार करता है और वैसे भी विश्वास के एक ऐसे प्रणालीको और कौन बना सकता है? आखीर में किसी ना किसी को तो विश्वास के इस व्यापक प्रणाली का मूल्याँकन और निर्धारण करना होगा ताकि क्रम में व्यवस्थित प्रणाली का कुछ रूप प्राप्त हो सके. यह एक सर्वशक्तिमान, सर्वज्ञ, सर्वव्यापी अस्तित्व का ही काम हो सकता है जो के वर्णात्मक रूप से परमेश्वर खुद ही हैं जो के समझ से बाहर के ऐसे चीज को निर्धारण कर सकते हैं तो फिर परमेश्वर के ही अस्तित्व को कैसे इनकार किया जा सकता है?

इस के अलावा अगर निर्वाण ही परम उपलब्धि और अंतिम नियति है और अपने आप को पुनर्जन्म के इस अंतहीन दोहराव से मुक्त करने का तरीका है तो कैसे कोई यकीन से इस दायरे के अस्तित्व के बारे में कह सकता है? 

कभी किसी ने निर्वाण के बाहर की जाँच करके और वापस आकार अपनी कहानी बताई है? क्या ये एक वास्तविक अनुभव है या फिर वो अंधविश्वास पर आश्रित हैं? मैंने मृत्यु के बाद के जीवन और मृत्यु निकट के अनुभव के बारे में एक ब्लॉग लिखा था जो आपको उपयोगी और रोचक लग सकता है.

jesusandjews.com/wordpress/2012/03/29/क्या-नर्क-वास्तव-में-है/

बौद्ध दर्शन के प्रतिकृया के रूप में मैं आपको एक वैकल्पिक दृश्य के बारे में बताना चाहता हूँ जो दुनिया के प्रकाश के रूप में येशु के बारे में बताता है और जो हरेक इंसान के पथ को उज्याले से भर देते हैं और अगर हम उन पर अपने प्रभु और उद्धारकर्ता के रूप में भरोसा करें तो वो अंततः हमें दुःख के इस दुनिया से बाहर लेकर आते हैं. वो हमारे ही मेहनत की वजह से हमें चेतना के एक गोपनीय स्थान पर नहीं ले जाते हैं बल्कि हमारे लिए स्वर्गीय आनंद का एक शाश्वत भाग्य को उन्होंने सम्हाल कर रखा है.

मैं २० साल पहले यीशु के साथ एक रिश्ते में आया था और उन्होंने मौलिक रूप से मेरे जिंदगी को बदल दिया और अस्तित्व के इस अस्थायी निवास को ठुकराने के वजाए मुझे जीने के एक उमंग के साथ भर दिया.

अगर आप चाहो तो आप मेरी गवाही यहाँ पर पढ़ सकते हैं:

jesusandjews.com/wordpress/2012/01/10/यीशु-के-साथ-मेरी-व्यक्तिग/

इसके अलावा आपत्ति का एक और मुद्दा यह है कि बौद्ध धर्म ने शैक्षिक रूप से जितना भी हासिल किया है वो सब हिंदू सोच के मदत से किया है.

ऐसा हो सकता है के बुद्ध खुद हिंदू धर्म से भटक गए थे पर उनका पैदा एक हिंदू के रूप में हुआ था, वो जिए एक हिंदू की तरह थे और वो एक हिंदू के तरह ही मरे और इस वजह से बौद्ध धर्म अनुवांशिक रूप से हिंदू धर्म से अलग हो सकता है पर वो अपने माँ हिंदू धर्म से बहुत ज्यादा मिलता जुलता है.

इसी लिए बौद्ध धर्म का पेड़ मजबूती से हिंदू धर्म में निहित है जिसने बौद्ध धर्म के धर्म दृश्यता को बनाए रखने के लिए अपना पोषण एक महत्वपूर्ण आधार से लिया है. 

दूसरे शब्दों में, हालांकि इन दोनों धार्मिक संस्कृतियों के विश्वासों में विविधता है, पर बौद्ध धर्म भारतीय गुरु के मार्गदर्शन के बिना टिक नहीं पाता और इसी लिए इस में मौलिकता का अभाव है जिसका मूल बुद्ध जिनको इसका श्रेय दिया जाता है वो ना होकर कोई दूसरा ही श्रोत है.

तो आप अपने सभी चोरी के अंडे बुद्ध धर्म के शिक्षण के तीन टोकरी में रखना चाहते हैं या फिर अपने आपको एक प्रेमी और उदार परमेश्वर के सुरक्षा करने वाले हात में देना चाहते हैं जिन्होंने आपको बनाया और जो आपको अपने पास रखने का इच्छा रखते हैं ताकी आपको जीवन मिले और वो भी प्रसस्त मात्र में?

अंत में ये तर्क इस बारे में नहीं है के किसके पास सबसे अच्छा दर्शन या सांस्कृतिक अभिव्यक्ति है पर ये सच को ढूँढने और सच को हमें पथ में आगे अपरिहार्य के दिशा में नेतृत्व करने देने के बारे में है. मसीह हर इंसान के पथ को उजाले से भरने के लिए आए पर जो उजाला आपके पास है वो अगर सच में सिर्फ अँधेरा है तो आपको आपका रास्ता कैसे मिलेगा.

फिर भी बाईबल हमें प्रोत्साहित करता है के परमेश्वर के शब्द हमारे पैरों के लिए एक चिराग और हमारे रास्ते के लिए एक प्रकाश है.

अंत में मुझे आशा है कि मेरे बातों को सिर्फ सही बोली के उल्लंघन के रूप में गलत समझा नहीं जाएगा और हालांकि मेरे शब्द कुछ कडा जैसे लगे पर मेरे पास वास्तविक चिंता का एक प्रेरणा है जो मुझे दूसरों के लाभ के लिए अपनी बात रखने में मेहनत करने में मजबूर करता है. अगर मेरी बातें आपको अभद्रतापूर्ण लगा हो या फिर मैंने आपको बेवजह नाराज किया हो तो मैं आपसे माफ़ी मांगना चाहता हूँ. मुझे ये बातें हल्का तरीके से कहते हुए इन महत्वपूर्ण अवधारणाओं के गंभीर संवाद को प्रभावी ढंग से कहना नहीं आता है. 

इसके अलावा, मैं विश्वास करता हूँ के बौध धर्मिओं में भी सही और गलत का एक जवाबदेही प्रणाली होता है. हमारे अस्तित्व के मुख्य फ्रेम में इन आदर्शों को पहले से ही रखा गया है जिससे परमेश्वर हमारे अंदर के भागों में सच का संचार करते हैं ताकि हमें नैसर्गिक रूप से ये पता हो के हमारे जीवन के निर्णयों के परिणाम और न्याय होते हैं और ये सम्माननीय बात है अगर बौद्ध धर्म इस बात को थोडा सा भी मानता है. पर अपने चेतना को ही संतुस्ट करने के लिए खुद के प्रयास करना तो सिर्फ एक नकली व्यवहार है इस सच के विरुद्ध में के उस परमेश्वर के साथ में एक व्यक्तिगत रिश्ता बनाया जा सकता है जो हमारे गलतियों के भार को हटा देते हैं जिस बात का प्रयास अपने खुद के प्रयास से हटाने के लिए मानवता ने बड़े जोर से किया है. 

समापन में मैं बस आप से गुजारिश करता हूँ के आप इस बुलावट को स्वीकार कीजिए ये देखने और स्वाद लेने के लिए के परमेश्वर अच्छे हैं और अपना हृदय येशु के व्यक्तित्व और काम को जानने के लिए खोल दीजिए.

अन्त में मैं आपको धर्म शास्त्र के एक अंश के साथ छोडना चाहूँगा जिसमें येशु ने मती के पुस्तक ११:२८-३० में ये कहा है “अरे ओ थके-मांदे, बोझ से दबे लोगों! मेरे पास आओ , मैं तुम्हे सुख चैन दूँगा. मेरा जुवा लो और उसे अपने ऊपर संभालो. फिर मुझसे सीखो क्योंकि मैं सरल हूँ और मेरा मन कोमल है. तुम्हे भी अपने लिए सुख-चैन मिलेगा. क्योंकि वह जुवा जो मैं तुम्हे देरहा हूँ बहुत सरल है. और वह बोझ जो मैं तुम पर डाल रहा हूँ, हल्का है. ”

 

 

कैसे भगवान के साथ एक रिश्ता बनाएं

jesusandjews.com/wordpress/2012/01/10/कैसे-भगवान-के-साथ-एक-रिश्त/

 

 

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दर्द और पीड़ा

Sunday, December 25th, 2011

क्यों दुनिया में दर्द और पीड़ा है और विशेष करके हमारे व्यक्तिगत जीवन में ऐसा क्यों है इस जटिल सवाल का जवाब देना और वो भी इस छोटी ब्लॉग में यह मुश्किल है. इस विषय पर कई किताबें लिखी गई हैं और ये प्रश्न जबाब के लिए भीख माँग रहा है. इस ब्लॉग के द्वारा मेरा उद्देश्य यह है कि लोग अक्सर अपने दर्द और पीड़ाके अस्तित्वको भगवान के साथ जोड़कर उनके प्रति एक गलत धारणा रखते हैं.

जब दर्द दुख, और बुराई की समस्या से निपटने की बात आती है, वहाँ कई चुनौतियां होती हैं जो इस बार पर निर्भर करती हैं के हम इसको इश्वरकी उपस्थिति और उनका हमारे साथके सम्बन्धको कैसे देखते हैं. यह उनकी संप्रभुता और अच्छाई के साथ साथ उनकी वास्तविकता पर ही सवाल खड़ा करती है. एक और विचार जिसको हमें ध्यान देना चाहिए वो ये है की अगर भगवान मौजूद हैं और वो इस पीड़ाको अनुमति क्यों देते हैं, तो क्या अच्छाईको अनुमति देने के लिए भी क्या वही जिम्मेबार हैं?

बाइबलके परिप्रेक्ष्य से जो मेरी इस समस्या को हल करनेका तरीका है वो ये है के बुराई एक मौजूदा सच्चाई है जिसकी सुरुवात समय की शुरुआत के साथ ही हुआ था. बुराई के साथ साथ दर्द और पीड़ा भी रहते हैं. यदि आप सृष्टिके खाते का अध्ययन करेंगे तो आप देखेंगे की इश्वरने जो सुरुवात में बनाया था वो बहुत अच्छा था और उन्होंने जब मानवको बनाया तो उसे विकल्पों में से चुननेकी क्षमता देदी और आप जानते हैं के जिस किसीके पास भी विकल्प हो वो अपनी संस्कृति पर प्रभाव डालसकता है. बेशक इस प्रभावके परिणामस्वरूप अंततः मानावने भगवान की अच्छाईको ठुकराते हुए अपनेआप और सृष्टि के सभी पर अभिशाप लाया. इस अभिशाप के एक परिणामके स्वरुप मानावने खुद को भगवान से विमुख करने का प्राकृतिक क्षमता पालिया. बुराई की साजिश के लिए मानव जाति की योगदान के साथ साथ एक दूसरा दुश्मन अर्थात शैतान भी है. वह एक विरोधी है जो परमेश्वर और उसकी रचना की भलाई के विरोध में काम करता है. वह अपने राक्षसी साथियों के साथ भगवान के लिए एक आध्यात्मिक समकक्ष के रूप में देखा जाता है और भले ही वे नग्न या प्राकृतिक आंखसे नदिखे पर वे वर्तमान और हमारी दुनियाके एक सक्रिय वास्तविकता हैं और मानव जाति और प्रकृति पर कहर लारहे हैं. जब राक्षसी और मानव तत्व परमेश्वर के दुश्मन के रूप में एक दूसरेके साथ खुशी खुशी शामिल होजाए तो एक जुड़ाहुआ प्रभाव बनता है जिसके परिणाम स्वरुप मानव की सबसे बड़ी भ्रष्टता और दुष्टता है.

इन सबके साथ यह स्पष्ट है कि इश्वर अपनी संप्रभुता में कम से कम एक मौसम के लिए ही स्वतंत्र इच्छाका मौका देते हैं. भगवान के बारे में एक दिलचस्प विशेषता या पहलू यह है कि वह अनन्तके न्यायाधीश हैं जो बिलकुल निस्पछ हैं. समाज की बुराई कर्ताको इश्वरके भविष्य के न्याय में अपने कृत्यों के विषय में जवाबदेही होना पड़ेगा और हमें भी अपने कर्मोंका खाता देना होगा. तो वैसे भी ये कहना चाहिए की इश्वर मानवजातीको उसके अपने फैसलों पर और उसने ईश्वरके अधिनको स्वीकार करके अपना जीवन बिताया या फिर उनके विद्रोह में इसपर आधारित रहकर न्याय करेंगे. तो फैसले में भगवान की संप्रभुता पूरी तरह से प्रयोग किया जाएगा यदि इस जीवन में नहीं तो आने वाले जीवन में.

एक बात जो हमें बुराई और दर्दको ईश्वरकी संप्रभुता और अच्छाईसे जोड़कर देखते वक्त विचार करना चाहिए वो खुद के विषयसे शुरू होता है. इस सवाल को अगर हम हमारे ही जीवन में व्यक्तिगत रूप से एक निष्पक्ष मूल्यांकन करेंगे तो हमें खुद से पूछना पड़ेगा के हमने हमारे अपने जीवन में कोई बुराई तो नहीं बनाई? की हमने किसी भी हद तक और किसी भी समय पर भगवान का उल्लंघन किया है?  क्या हम निर्दोष हैं? क्या हम किसी के सीकार हैं या फिर हम भी पाप अपराधों के अपराधि हैं? हमने हमारी दुनिया में पीड़ा को खत्म करने में क्या मदद किया है ? बाईबल भगवान की दस आज्ञाओंको संदर्भित करता है और इस स्तर पर सभी लोगों ने इंसान और परमेश्वर के विरुद्ध कुछ हद तक पाप किया है. इसलिए हम हमारी दुनिया में इन सब अभिशाप या  दु:ख के लिए जिम्मेदार हैं.

हमें अन्त में यह देखना चाहिए कि खुद परमेश्वर ने यीशु के व्यक्ति के माध्यम से खुदको यातना के एक मानव साधन अर्थात् क्रूस पर मानवता की पीड़ा में दर्द महसूस करने की अनुमति दी. यशायाह नबी का कहना है कि यीशु दु: ख से भरे एक आदमी थे और दु: ख से परिचित भी थे . काफी दिलचस्प बात तो ये है के इश्वर ने खुद को जान – बूझकर दर्द और पीड़ा के मानवीय तत्व के अधिन में रखा और ये कहा के उन्होंने हमारे साथ सब कुछ का सामना किया. उनका दर्द हमारे लाभ के लिए अंततः साबित हुआ क्योंकी उन्होंने अपना ही जीवन हमारे पापी जीवन जिसके लिए पवित्र और सर्वोच्च न्यायाधीश के आगे हमें दोषी ठहराया जाता उसके बदले में एक फिरौती के रूप में देकर परमेश्वर के धर्मी और सही न्याय को पूरा किया. हालांकि हम दुश्मन थे फिर भी वो परमेश्वर और एक दूसरे के साथ हमारे मिलन के लिए मर गए और ये बस अयोग्य प्राणियों के प्रति उनकी दया और अनुग्रह की वजह से संभव हुआ. इस से एक व्यक्तिको ये अनुमान लगाना चाहिए के इश्वर बुराई के आगे भी अच्छे और संप्रभु रेहते हैं और इस बात में कोई विवाद नहीं है.

जो कुछ भी इस मामले पर  हमारा दृष्टिकोण हो ,ये अच्छे परमेश्वर हमें एक नया आकाश और नई पृथ्वी देंगे और किसी दिन सब दर्द, पीड़ा और दुख को हटाकर परम शांति देंगे. बेशक यह स्पष्ट है कि ये सब अभी तक नहीं हुआ है लेकिन फिर भी यह हमारी आशा है और यह आगामी क्षितिज पर है . एक बात हम आज और अभी सुरक्षित कर सकते हैं कि अगर हम येशुको अपने प्रभु और मुक्तिदाता के रूप में स्वीकार करके उनकी इच्छा पूरा करते हैं तो वो हमारे पापी दिलको बदल देंगे. जब वह हमारे दिलको परिवर्तन करेंगे तो हमारे अपने व्यक्तिगत जीवन में जो अभिशाप है वो उलट जाएगा और इश्वर हमारे भीतर अपने अच्छाईका उत्पादन करेंगे और वो भी इस हद तक के हम हमारे दुश्मन से प्यार कर सकते हैं.

मैं एक ‘शहीद की आवाज’ नामक समूहका समर्थन करता हूँ और उनके आंकड़ों के आधार पर कहा जा सकता है की ऐसे ३००००० ईसाइ हैं जो अपने विश्वास के लिए हरेक वर्ष पीड़ित किए जाते हैं. अब एक शहीद सिर्फ ऐसा कोई नहीं है जो विश्वास के लिए मरते है बल्कि यह वो सब हैं जो अपने विश्वास के लिए अमानवीय व्यबहारका सामना करते हैं. इसमें नौकरी, परिवार, घर,आदि का खोना या फिर शारीरिक और भावनात्मक यातना आदि हो सकता है. उनकी बस इतनी दोष है की वो ईसाई हैं और वो एक ऐसे शत्रुतापूर्ण संसार में रेहते हैं जो उके विशवास के प्रति असहिष्णुता से भरे हुए हैं. कैथोलिक मत में चला कुछ ऐसे ही बातें हैं जो क्रूसेड और धर्माधिकरण लगायत अन्यको भी सताते थे. फिर भी मसीह ने कभी भी इस तरीके से उनके राज्य के लिए लड़नेको नहीं बोला और उन्होंने ये भी कहा की हमें उनके चेलों के रूप में हमारे दुश्मनसे भी प्यार करना चाहिए और दूसरा गाल आगे कर देना चाहिए. तो वो सभी जो मसीह के दावे करते हैं, लेकिन दुनिया की तरह शत्रुतापूर्ण व्यवहार भी करते हैं वो वास्तव में उनके अनुयायि नहि हैं. एक तथ्य बात तो ये है के बहुत से ये शहीद जिनको सताया जाता है वो उनके अत्याचारीको माफ करके उनके लिए प्रार्थना करते हैं.

वैसे भी हम पीड़ा के लंबाई और चौड़ाई के बारे में प्रश्न तो उठा सकते हैं पर अगर अनंतकी बात करें  तो ये क्षणभंगुर है. बाइबल धुवां के एक वाष्प के रूप में मानव जीवनको परिभाषित करता है. प्रेरित पौलुस ने कहा कि हमारे हल्का और क्षणिक मुसीबतें हमारे लिए एक अनन्त महिमा लारहि है जो उन सबसे बोहोत ज्यादा है. फिर भी बहुत लोगों से ज्यादा दुःख तो उन्होंने ही पाया क्योंकि उनको ५ बार कोड़े लगाए गए, ३ बार छड से पीटा गया , एक बार उनपर पत्थराव किया गया और ३ बार उनको क्षतिग्रस्त किया गया था. वह अपने मिशनरी सफर के दौरान अधिकांस समय खतरे में थे, जब वह दूसरों के कल्याण को बढ़ावा देते थे. ये मुझे उन मानवीय मदतों की याद दिलाती है जो चर्च के माध्यम से बड़े पैमाने पर पूरे दुनिया को मिल रहा है और परमेश्वर या मसीह का उनके दिल पर प्रभावके बिना ये मदत आज दुनिया के लिए संभव नहीं होता. यह रूपांतरण के लिए एहसान नहीं है. मैंने अपनी सेवानिवृत्ति के साथ ७०००० डलर प्रति वर्ष बनने वाला काम इज़राइलके तेल अवीव सेहेर में भोजन और कपड़ों के वितरण केंद्र में स्वयंसेवा करने के लिए छोड़ दिया और बोहोत से लोग तो प्रभुमें नहीं आए पर हमने बांटना और सेवा देना जारी रखा.

अंत में मैं ये कहना चाहूँगा की कभी कभी दर्द और पीड़ा अच्छाई का एक बचाने वाला  कार्य उत्पादन कर सकता है . इस बातको समझाने के लिए कई उदाहरण है पर जो मैं अक्सर सोचता हूँ वो ये है के किसी दुर्घटना के बाद वहाँ पर ‘रोकने’का संकेत रखना चाहिए. दुर्भाग्य से किसी दूसरे के लिए किसी और को पीड़ित होना पड़ा और यह इश्वर ने हमारे लिए अपने पुत्रको पीड़ा सहने की इजाजत देके जो किया ऐसा सुनाई देता है जिसमें फाइदा हमारा ही हुआ.

वैसे भी यदि इस सब के बाद भी अगर बात समझ में नहीं आता है तो हम जो कर सकते हैं वो है इश्वर पर भरोसा. यह उसी तरह है के जब हम छोटे थे और हम जीवन के बारे में बातें समझ नहीं पाते थे , लेकिन हम हमेशा हमारे माता पिता को हमें प्यार और सुरक्षा देने के लिए भरोसा करते थे. बिलकुल यही इश्वर चाहते हैं के हम उनके साथ करें जब हम संकट के बीच में होते हैं. यहां तक कि अगर हमारे पास हर सवाल का जवाब होता तो क्या उसे हल करने के लिए पर्याप्त होता. परमेश्वर हमारी बुद्धि के बारे में चिंतित नहीं हैं जितना वो हमारे दिल के बारे में चिंतित हैं और इसी बात में दुविधा की कुंजी निहित है. चलो बस भगवान पर भरोसा रखें.

 

 

कैसे भगवान के साथ एक रिश्ता बनाएं

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