आर्य समाज / आर्य प्रतिनिधि सभा का स्थापना मूल शंकर या दयानंद ने किया था जिनका सोच पारंपरिक हिंदू धर्म को सुधार करने का था और वो ऐसा करने के लिए बहुदेववाद, मूर्ति पूजा, पशु बलि, पूर्वज पूजा, तीर्थ, जाति व्यवस्था, दिव्य अवतार और बाल विवाह जैसे सभी विश्वासों को खारिज करना चाहते थे जिनमें वैदिक प्रतिबंधों की कमी थी.
लेकिन आर्य समाज कुछ ऐसे प्रथाओं का पालन करते हैं जो इन समाप्त हो गए प्रथाओं के सीमा रेखा में हैं जैसे की आग (हवन) और गाय को पवित्र मानना.
वैसे भी स्वामी दयानंद सरस्वती का वेदों के पूर्ण अधिकार के विषय में अपना ही राय था जिसकी वजह से उन्हें बहुत से पारंपरिक विश्वासों और अनुष्ठानों को त्यागना पड़ा, फिर भी अपने ही स्थिति के विपरीत उन्होंने कुछ सिद्धांतों के विषय में वेद से परे विचार दिए हैं जैसे के वो कर्म और पुनर्जन्म में लागू होते हैं. वैसे भी अगर वेद सच में सच्चाई का परम श्रोत है और परमेश्वर का प्रेरणा है तो क्यूँ वो उन सब से अलग नही हैं जिन्होंने वेद से अलग विचार देकर हिंदू धर्म के पवित्र पानी को प्रदूषित कर दिया है. यदि वेद सही और अचूक है तो उस खाने में एक और नुस्खा जोड़ने से सिर्फ वो एक दूसरा पकवान बन जाता है जिसको आध्यात्मिक रूप से परोसा जाता है और वो बिलकुल ही व्यक्तिगत स्वाद पर आधारित है. इसके अलावा वहाँ पर इतने सारे गुरु हैं जिनका क्या करना है और क्या नही करना है उसके बारे में उनका खुद का ही विचार है और मेरा सवाल है के उनमें से कौन सही है अगर कोई सही भी है तो? इसके अलावा जाती व्यवस्था को हटाने का उनका अवधारणा व्यक्तिगत रूप से एक चुनौती है क्योंकि वो इस सम्प्रदाय के संरक्षणकर्ता के रूप में अपना भूमिका निभाते हैं और इसी अर्थ में उन्होंने पुरोहित सिल्प का प्रयोग किया है भले ही उन्होंने अपने ब्राह्मण विरासत को त्याग दिया था. ऐसा होते हुए विशवास का प्रचार करने के लिए किसी और को उनका मुखपत्र या प्रवक्ता क्यूँ नही बन्ने दिया जाए? तो खुद को पुरोहित कर्तव्य “से” दूर रखने के वजाए उन्होंने खुद को अलग करके पुरोहित बन गए हैं और वो अन्य गुरुओं या आध्यात्मिक नेताओं के बीच में एक संभ्रांतवादी हो गए हैं.
ये एक सामजिक आंदोलन होने के वजाए आर्य समाज ने कई सारे सकारात्मक बदलाव लाए हैं जो एक नैतिक एजेंडा का समर्थन करता है और वो पारंपरिक हिंदू धर्म के कुछ दमनकारी प्रथाओं के विपरीत अपने मानवीय प्रयासों में बिलकुल व्यावहारिक है. हालांकि जाती व्यवस्था को हटाने का उनका करवाई सराहनीय है पर अगर व्यावहारिक रूप से कहें तो उनके खुद के सदस्यता में से इस लेबल को हटाना बहुत मुश्किल हो गया है. इसके अलावा अन्य धर्मों के प्रति सहिष्णुता के विषय में महर्षि दयानंद सरस्वती के विचारों के संबंध में, ये बात उनके अपने स्वयं के आंदोलन के भाईचारे में दिखाई देता है और वो जिनको गैर सदस्य माना जाता है उनको लक्षित करके उनके खिलाफ भेदभाव किया जाता है जैसे के वो वर्न के ही व्यवस्था में हों.
विडंबना यह है कि सामाजिक सुधार के लिए उनका मंच उनके सांस्कृतिक शुद्धता को प्राप्त करने के राष्ट्रवादी निष्ठा के वजह से सिमित है. उनके इस रुख के वजह से ही उन्होंने अपने विश्वास के कई सिद्धांतों का उल्लंघन किया है जिनमें उनका १० बुनियादी सिद्धांत भी सामिल हैं जो वास्तव में पूरे इंसानियत के लिए अच्छाई और प्यार को बढ़ावा देता है. दुर्भाग्य से धार्मिक वर्चस्व के लिए इस उत्साह की वजह से ही कई ईसाइयों और मुसलमानों का उत्पीड़न भी हुआ है. इसी प्रकार से उन्होंने देशभक्ति के इस अवधारणा को इस हद तक अपना लिया है के आतंकवाद और शत्रुता को भी उन लोगों ने अपने धार्मिक अभिव्यक्ति में ही मिला लिया है और ये उन आन्दलोननों के लिए और भी कट्टर हैं जो मूल रूप से भारतीय नही है.
ये आक्रामक असहिष्णुता एक विचारधारा को बढ़ावा देता है के संस्था और सांस्कृतिक वरीयता मानव जीवन की पवित्रता की तुलना में अधिक महत्वपूर्ण हैं. इसके अलावा इस अतिवादी दृश्य के आगे झुकना और पूजा करना अनैतिक, असामाजिक और अमानवीय है. अंत में हमें ये याद रखना चाहिए के जातीय रूप से इनमें से कई लोग भाई बहन हैं जो सांस्कृतिक रूप से एक दुसरे से जुड़े हुए हैं और उनका एक ही विरासत है चाहे वो अलग धर्म के क्यों न हों? आर्य समाज को अगर रूढ़िवादी हिंदू समुदाय के आकार के सम्बन्ध में देखें तो वो काफी छोटा समूह है और मुख्यधारा के हिंदू धर्म द्वारा उनको अस्वीकार करना जितना गलत है उतना ही गलत ये भी है के उनके गैर पारंपरिक तरीके के तहत दूसरों को पीड़ित किया जाए.
वैसे भी इन तर्कों या विवादों में से सबसे बड़ा सवाल ये है के क्या ये आंदोलन सत्य का परम श्रोत होने का मानक रखता है विशेष करके इस अवस्था में जब उसके संस्थापक और उनके अनुयायी ही अपने विश्वास के क्षेत्र में असंगत दिखाई देते हैं?
मुझे लगता है कि दयानंद के उन शब्दों को ध्यान देना बुद्धिमानी होगा जब उन्होंने कहा था के वो सिर्फ एक मानव हैं जिनका बुद्धि बिलकुल ही सिमित है. उन्होंने आगे ये भी कहा है के उनके जानकारी और सामग्री गलत भी हो सकते हैं और इसीलिए भविष्य की पीढ़ीओं के लिए परिवर्तनीय भी हो सकते हैं.
तो भले ही ये एक विनम्र और ईमानदार बयान हो सकता है, पर जो व्यक्ति इस प्रकार के वयान दे सकता है उसका आत्मविश्वास कितना होगा? मुझे लगता है के ये आत्म धोखे की संभावना के लिए दरवाजा खोल देता है जो उनके स्वामी विराजनन्द के साथ ही शायद सुरु हुआ था और आज के समय के आंदोलन तक भी वो बात बिलकुल सही है. मैं ये नही कह रहा हूँ के उनके स्थिति में कोई सच्चाई नही है और उनके विचारों को पालन करने से कोई फाइदा नही होगा पर कोई ऐसे संदिग्ध वयान के साथ कैसे सत्य के बारे में ऐसे विशिष्ठ दावे कर सकता है और इसीलिए उनका विश्वास भी उनके बिजली के बारे मैं वेद के दावों की तरह ही गलत है.
वैसे भी दयानंद के कर्म और पुनर्जन्म के विचार के ब्यौरे पर मैं पूरी तरह से वाकिफ नही हूँ लेकिन ऐसा लगता है के ये दर्शन जाती व्यवस्था को बढ़ावा नही देता है ऐसा साबित करना बहुत मुश्किल होगा क्योंकि समाज से अलग करना या निर्वासित करना पिछले जनम के कर्मों के परिणामों की वजह से हो सकता है. इसलिए जाती व्यवस्था को निर्वासित करने का दयानन्द के पास कैसा अधिकार है अगर वो कार्मिक बालों के ऋण के खिलाफ बात कर रहे हैं? इसके अलावा कर्म के बारे में उनका ब्रांड ये कहता है के ज्ञान या मोक्ष वास्तव में केवल अस्थायी है, जिसमें व्यक्ति पुनः उसी व्यवस्था में पुनर्नवीनीकरण कर दिया जाता है. तो क्षणिक मुक्ति में कैसी आजादी है ये जानते हुए के एक दिन आप जिंदगी के उस चक्र में लौट आएँगे?
मैंने पहले भी पुनर्जन्म के बारे में एक ब्लॉग लिखा है जिसमें मैंने पुनर्जन्म के कमिओं के बारे में लिखा है जो निश्चित रूप से दयानंद के विचारों का प्रतिनिधित्व नही करता है पर संभव है के वो कुछ सामान विषयों पर बातें करता है.
वैसे भी इन सभी बातों के विपरीत बाइबल ये कहता है के कोई इंसान मरने पर न्याय का सामना करता है और ये बात उन लोगों के लिए एक विनाशकारी वयान की तरह लग सकता है जिन्होंने अपने वर्तमान जीवन में काफी सारे गडबड किए हैं, पर वास्तव में ये सिर्फ उन लोगों के खिलाफ न्याय है जिन्होंने परमेश्वर के अनुग्रह को ठुकराया है और दूसरों को उनके जीवन की गन्दगी साफ़ करने में मदत करते हैं. इसकी वजह यह है कि ऐसा कोई कार्य या पाप नही है जो इतना बड़ा हो की वो परमेश्वर के इच्छा को पूरी तरह से खतम कर दे जो पूरी तरह से और काम करने के तरीके से अनन्त मुक्ति या मोक्ष लाने में सक्षम हैं. ये येशु के माध्यम से ही संभव है के आप अभी और यहाँ ही मुक्त हो सकते हैं और इसीलिए अगर इश्वर की माफ़ी और बहाली को उपहार के रूप में मुफ्त में ही पाया जा सकता है तो नैतिक रूप से निंदा करने के लिए हमारे पास कोई बहाना नही है.
१ यहुन्ना १:०९
यदि हम अपने पापों को स्वीकार कर लेते हैं तो हमारे पापों को क्षमा करने के लिए परमेश्वर विश्वसनीय हैं और न्यायपूर्ण हैं और समुचित हैं.
यहुन्ना ११:२५
येशु ने उससे कहा ,”मैं ही पुरुत्थान हूँ और मैं ही जीवन हूँ. वह जो मुझमें विश्वास करता है जियेगा.”
मती ११-२८:३०
“अरे, ओ थके-मांदे, बोझ से दबे लोगों! मेरे पास आओ, मैं तुम्हे सुख चैन दूंगा. मेरा जुवा लो और उसे अपने ऊपर संभालो. फिर मुझ से सीखो क्योंकि मैं सरल हूँ और मेरा मन कोमल है. तुम्हे भी अपने लिए सुख-चैन मिलेगा. क्योंकि वह जुवा जो मैं तुम्हे दे रहा हूँ बहुत सरल है. और वह बोझ जो मैं तुम पर डाल रहा हूँ, हल्का है.”
समापन में मैं ये कहना चाहता हूँ के एक महान या सम्माननीय व्यक्ति को सत्य के मार्ग का अनुसरण करने के लिए हमेशा तैयार होना चाहिए चाहे वो सबूत उसे कहीं भी ले जाए और चाहे वो उसके पूर्वाग्रह या पूर्वाग्रह विचारों के खिलाफ की बातें हों या फिर उसके सांस्कृतिक वरीयताओं के खिलाफ हो.
इसके अलावा मैं बस ये चाहता हूँ के आप सबसे बड़े जो हैं उन परमेश्वर से प्रार्थना करें के वो आपको निर्णायक रूप से दिखाएँ के येशु प्रभु ही सच में परम सत्य के श्रोत हैं या नही.
यहुन्ना १४:६
येशु ने उससे कहा,”मैं ही मार्ग हूँ, सत्य हूँ और जीवन हूँ. बिना मेरे द्वारा कोई भी पिता के पास नही आता.”
कैसे भगवान के साथ एक रिश्ता बनाएं
jesusandjews.com/wordpress/2012/01/10/कैसे-भगवान-के-साथ-एक-रिश्त/
अन्य संबंधित लिंक
jesusandjews.com/wordpress/2012/02/13/arya-samaj/
Religions of the world: a comprehensive encyclopedia of beliefs and practices/ J. Gordon Melton, Martin Baumann, editors; Todd M. Johnson, World Religious Statistics; Donald Wiebe, Introduction-2nd ed., Copyright 2010 by ABC-CLIO, LLC. Reproduced with permission of ABC-CLIO, Santa Barbara, CA.
Encyclopedia of Religion Second Edition, copyright 2005 Thomson Gale a part of The Thomson Corporation, Lindsay Jones Editor in Chief, Vol.1, pgs.515-516, Thomas J. Hopkins
Encyclopaedia Britannica,Inc., copyright 1993, Vol.1, pg.611, Arya Samaj
Encyclopaedia Britannica,Inc., copyright 1993, Vol.3, pg.925, Dayananda Sarasvati