यह संप्रदाय दिव्य सन्देश परिषद या दिव्य प्रकाश मिशन के रूप से जाना जाता है जिसका सुरुवात पहले ज्ञान के माध्यम से आत्मज्ञान पाने के लिए हुआ था और अपने प्रचार करनेवाले विवादास्पद कार्यों के कारण इस आंदोलन के बारे में ऐसी कई बातें थीं जो आशंका के साथ प्रकाश में लाए गए थे.
इसके संस्थापक, गुरु श्री हंस जी महाराज, माना जाता है कि औरों के दीपक जलाते हुए भगवद गीता और संत मंत परंपरा और उसके साथ आर्य समाज के कारण आत्मज्ञानी बने थे.
श्री महाराज जी का संदेश था कि सभी धर्म मुख्य रूप में एक ही हैं और ये बात किसी भी इंसान के लिए स्विकारोग्य नही होगा जिसने तुलनात्मक धर्मों का अध्ययन किया है.
सभी रास्ते परमेश्वर तक ले जाते हैं
लेकिन अगर यह सच है तो उनके लिए इसके आगे कुछ कहने और धर्मों के फरक को आगे लाने का कोई कारण नही है क्योंकि मूल मान्यतों में सभी धर्में एकत्रित हैं और ऐसा कोई काम करना जिससे इस मिसावट के समृद्धि में कुछ जोड़ा जाए ये तो सिर्फ अन्य धार्मिक चिकित्सकों में दुश्मनी और अनेकता लाने का कोशिश होगा और वो वास्तव में कहें तो जीवन में सिर्फ एक ही सही रास्ता होने का विशेष विचार रखते हैं और अभिमुख होने वाले बात में वो विशवास नही करते हैं. इसके अलावा अगर मामला ऐसा है तो आध्यात्मिक ज्ञान देने का अग्रिम प्रयासें क्यों किया जाए क्यूंकि सभी प्रक्रिया आवासन होके एक ही सत्य की ओर जाते हैं? इसलिए अगर आप गुरू के दृष्टिकोण को स्वीकार करेंगे तो वास्तविक रूप से कहा जाए तो धर्मों में चरित्रण करने का कोई सही कारण नही है क्योंकि हम सभी एक ही पानी के छेड़ की ओर जा रहे हैं और फिर भी इस सम्प्रदाय का अपना ही एक व्यक्तिगत व्यक्तित्व है जो इस सम्प्रदाय का पहचान देता है जो इसके सामान्य विचार से मेल नही खाता है.
फिर भी हंस राम सिंह रावत के बचाव में अगर कुछ कहा जाए तो उन्होंने सुरुवात में अपने आंदोलनको एक पहचाने हुए संगठन के रूप में पहचान देने से इनकार किया, लेकिन समय के साथ उनको उस दवाव के आगे झुकना ही पड़ा जो इसलिए समझ में आता है क्योंकि उनके विश्वास का खासियत ये था की वो बिलकुल अद्वितीय था. इसके अलावा इस समूह में अन्य धार्मिक विचारों का एक सम्पिन्डित मिश्रण है पर फिर भी वहाँ पर कुछ चीजें फरक हैं जो इसे और धार्मिक आन्दोलनों में शामिल होने या अवशोषित होने से रोकता है क्यूंकि इसके शिक्षा और प्रथा विशिष्ठ हैं. इस प्रकार से डाली, पंथ या धर्म की परवाह किए बिना सभी लोगों में एकता बनाए रखने का उनका अवधारणा सिर्फ सैधांतिक है और व्यावहारिक नही है.
इसके अलावा ये पूरा मामला शांति स्थापित करने के लिए प्रगति के रूप में दिखाई दे सकता है पर क्या सिर्फ कुछ पाने की कोशिश की “अन्त” जो किसी प्रकार से काम करता है किसी प्रकार से हमारे अस्तित्व और अंतिम सत्य को गुमाने का “जरिया” बन सकता है? क्या हम अनुपालन करते हैं और इन सब बातों के बाबजूद इश्वर के लिए श्रद्धा और धनुष रखते हैं? क्या ये हमारे व्यक्तिगत अधिकार और उद्देश्य की बात है के हमें एक आम समाधान या मानदंड ढूँढना है ताकि हमें हमारा अंतिम वास्तविकता मिल सके या फिर ऐसा कुछ करना जैसे के उत्कृष्ट या सर्वोच्च व्यक्तित्व के बारे धार्मिक कर्तव्य निर्धारण करना किसी प्राणी के भूमिका से परे बातें हैं?
शांति अच्छा है और हमारे क्षमता के सबसे अच्छे रूप में उसकी खोजी करना चाहिए पर ऐसा किसी भी कीमत पर करना जैसे की सभी विश्वासों का मिलाना तो सत्य के रास्ते का निर्धारण करने वाले परम निर्माता के अधिकारों का संघर्ष हो जाएगा. दूसरे शब्दों में, यह वास्तव में हमारा काम नही है के हम कोई दुसरे “बाबेल का टावर” निर्माण करें ताकि पूरी इंसानियत को हमारे व्यक्तिगत धार्मिक वास्तविकता के एक आम बैनर के तहत एकिकृत किया जा सके.
इसके अलावा विवाद का एक और मुद्दा गुरु महाराजी के पुत्र और उत्तराधिकारी प्रेम रावत ने उठाया था जिनका विश्वास ये था के आम तौर पर मानव जाती का प्रकृति अच्छा ही होता है और ये स्थिति बड़े रूप में हमारे समाज के दुष्टता को इनकार करता है और कम आंकता है. हम तकनीकी रूप से काफी आगे बढ़ चुके हैं पर मानव जाती नैतिक और नैतिक मूल्यों के प्रगति में काफी पीछे रह चूका है क्योंकि ये सदी मानव जाती के इतिहास में सब से खुनी युग रहा है. यदि अच्छाई मानव जाति का एक स्वाभाविक प्रवृत्ति है तो नियमों का प्रबंध और व्यवस्था करने के लिए हमारे समाज में कानून और सरकार की स्थापना की जरूरत क्यों है और लोगों पर आचरण का एक उचित कोड को बनाए रखने के लिए विश्वास क्यों नही किया जा सकता है? क्या आप ऐसे एक समाज का कल्पना कर सकते हैं जिसमें लोगों को वो जो करना चाहते हैं वो करने का अनुमति है? क्या आप जानते हैं के इस तरह के अभ्यास से कैसा परिणाम पैदा होगा? इसके अलावा अगर हर किसी को व्यक्तिपरक रूप से उनकी अच्छाई के अपने विचार व्यक्त करने के लिए छोड़ दिया जाए तो अनिवार्य रूप से अलग लोगों के लिए अच्छाई का अलग अलग मतलब हो सकता है जो बहुत ही भयावह और अराजक स्थिति ले आएगा.
श्री महाराजी के खुद के परिवार में शान्ति पाने और अच्छाई के साथ जीने के बातों में परसपर विरोध है क्योंकि शक्ति पाने के लिए उन लोगों में लड़ाई और विवाद है जैसे के जगत जनानी माता श्री राजेश्वरी देवी और उनके पुत्र प्रेम पाल सिंह रावत या फिर बल्योगेश्वर के बिच देखा गया है. एकता का ये पूरा अवधारणा को तब छोड़ा गया जब बल्योगेश्वर परम हंस सत्गुरुदेव श्री संत जी महाराज ने एक गैर भारतीय या पश्चिमी लड़की से शादी कर लिया जिसके वजह से उनको अपने परिवार से दूर होना पड़ा. इसके अलावा इस मामले ने पूरे दिव्य प्रकाश मिसन को ही विवादों के घेरे में ले आया जो बात प्रकाश के एक स्तंभ के रूप में आगे आया क्योंकि प्रेम रावत की माँ माताजी ने उन्हें अपनाने से इनकार कर दिया और उनके बड़े भाई सतपाल महाराजको (सतपाल सिंह रावत, जिनको बाल भगवनजी भी बुलाया जाता है) उनके भाई का उत्तराधिकारी बना दिया.
इस विवाद में और बातें जोड़ने के लिए ये तथ्य सामने आता है के पहले प्रेम रावत को उनके परिवार ने उनके पिता हंस जी के पूर्वाधिकारी के रूप में स्विकार किया था, तो मेरा प्रश्न ये है ये यदि कोई भी है तो इनमें से असली गुरु कौन है?
इस विभाजन के बाद सतपाल सिंह रावत ने भारत में दिव्य प्रकाश मिशन की बागडोर सम्हाल लिया और बाद में जाकर वो मानव उत्थान सेवा समिति के भी गुरु बन गए जो डी. एल. एम्. के लिए एक प्रशाखा था और अभी आकार उनको और उनके परिवार को अत्याधिक जीवन शैली जीने के लिए देवत्व के रूप में पूजा जाता है. इस प्रकार उनके परिवार को भारतीय जीवन के रिक्सा में मुफ्त की सावारी मिलता है जो एक अर्थ में जाती के असमानता वाले बातों को बढ़ावा देता है जो की उनके पिता के समतावादी विचार से विपरीत दिशा की बातें हैं.
वैसे भी गुरु श्री हंस जी महाराज के मृत्यु के बाद उनके पुत्र प्रेम पाल सिंह रावत ने सतगुरु के उपाधि को स्वीकार कर लिया जैसे की वो एक संपूर्ण स्वामी हों पर वो तो संपूर्ण हो ही नही सकते हैं. सुरुवात में उनके अनुयायियों ने उनको परमात्मा के अवतार के रूप में माना और फिर भी उनमें से बहुत से लोग तो भूल ही कर रहे थे क्योंकि वो पश्चिमी भौतिकवाद के प्रभाव में आ गए थे जो मेहेंगी गाडीओं, कई सारे घरों के रखने आदि से आता है और भले ही इनमें से कई सारे असाधारण उपहार उन्हें उनके अनुयायियों ने ही दिया था फिर भी इस बात को एक करोड़पति के जैसा जीवन बिताने के रूप में देखा गया.
उनके कथित दिव्य स्थिति के बारे में यदि कहा जाए तो पूर्ण निष्पक्षता से ये कहा जा सकता है के उन्होंने पहले के वर्षों में अभिलिखित रूप में अपने देवत्य को नकारा था पर उनके समूह के और लोगों की मानें तो उनको सम्मानित किया गया था और किसी भी प्रकार से निंदा किए बिना उनका पूजा किया गया था. उनके कई सारे उपाधिओं में “ब्रह्माण्ड के इश्वर” और “संपूर्ण स्वामी” के साथ साथ उनके खुद का दावा किया हुआ उपाधि “पूरे दुनिया के उद्धारकर्ता” भी था और ये उपाधि तो बहुत ही मजबूत घोषणा लगता है क्योंकि ये अब सिर्फ उनको एक इज्जतदार और सम्मानित आदमी के रूप में ना मानकर उनको येशु और बुद्ध जैसे इश्वर माने जाने वालों के दर्जा में रख देता है. इसके अलावा १९७३ में ह्यूस्टन एस्त्रोडोम में एक मिलेनियम त्योहार के दौरान उन्होंने २०,००० लोगों को उन्हें पूजा करने की अनुमति दी और वो खुद एक ऊँचे सिंघासन पे बैठ गए और ये बात उनके प्रतिक्रिया का छल कपट देखाता है क्योंकि उनका व्यवहार उनको एक महाराजा या दिव्य अवतार होने जैसा दर्शाता है. इसके अतिरिक्त उनका यह रवैया सतपाल के देवत्य के दावों के कार्यों के साथ भी मेल खाता है जो मुझे ये सोचने पर मजबूर कर देता है के अगर हंस राम सिंह रावत ने शुरूवात में अपने देवत्य को सिर्फ इस बात के लिए प्रयोग किया के उसको सब के सामने इनकार किया ताकि उनको बुरा प्रेस या विवाद से बचने का मौका मिल सके.
कहने की जरूरत नहीं है कि वह एक मुक्तिदाता के सहस्त्राब्दि शांति का उद्घाटन करने में विफल रहें हैं और ये उत्सव विनाशकारी था क्योंकि आर्थिक रूप से गंभीर होने के साथ साथ इसमें उपस्थिति भी कम था. समय के साथ ही उनके साख को लोग अस्वीकार करने लगे जिसके वजह से उन्हें कई सारे मौकों पर अपनी रणनीति बदलनी पड़ी ताकि उनका लोकप्रियता कायम रहे. इस मंदी के जवाब में वो अपने कार्यों में आगे बढ़ने से हीच किचाने लगे और अपने जीवन के तरीके को बदलने के क्रम में अपने देव्य स्थिति को बदल कर सिर्फ एक शिक्षक के रूप में ही रह गए और अपने भारतीय पहिरन के बदले में सिर्फ सूट पहनने लगे. लेकिन एक बार उन्होंने महसूस किया कि वास्तव में ये सार्वभौमिक दृष्टिकोण सही कदम नहीं था और फिर वो अपने मूल पोशाक में वापस चले गए.
तो जहां उनके अनुयायी घट रहे थे, वहाँ पर उन्होंने अपने विपणन रणनीति को परिवर्तन किया जिसके वजह से उन्हें अपने कई सारे अनुयायियों को गुमाना भी पड़ा जो उनके मूल आंदोलन के हिस्सा थे क्योंकि वो एक धार्मिक या आध्यात्मिक संस्था से एक गैर धार्मिक स्वयं सहायता करने वाला संस्था में परिवर्तन हो रहा था जिसका नाम था एलन वाइटल या प्रेम रावत फाउंडेशन.
सारांश में कहें तो भले ही इन भाइयों में से कई विभिन्न महाद्वीपों के विपरीत ध्रुवों पर हैं पर उन सभी के पास लोगों के मस्तिस्क को धोने वाला एक आम क्षमता है और वो ऐसा उन लोगों को किसी ऐसे चीज में विश्वास दिला कर करते हैं जो वो नही हैं. बाइबल ने ऐसे धोखे वाले जालों में गिरने के बारे में हमें पहले ही चेतावनी दिया है और वो इसमें झूठे शिक्षकों, नबी और मसीहा को संदर्भित करता है.
मती ७: १५-२०
“ झूठे भाविस्यवाक्ताओं से बचे ! वे तुम्हारे पास सरल भेड़ों के रूप में आते हैं किन्तु भीतर से वे खूंखार भेडीए होते हैं. तुम उन्हें उन के कर्मों के परिणामों से पहचानोगे. कोई कंटीली झाडी से ना तो अंगूर इकट्ठे कर पाता है और ना ही गोखरू से अंजीर. ऐसे ही अह्छे पेड़ पर अच्छे फल लगते हैं किन्तु पुरे पेड़ पर तो बुरे फल ही लागते हैं. एक उत्तम वृक्ष बुरे फल नही उपजाता और ना ही कोई बुरा पेड़ उतम फल पैदा कर सकता है. हर वह पेड़ जिस पर अच्छे फल नही लगते हैं, काट कर आग में झोंक दिया जाता है. इसलिए मैं तुम लोगों से फिर दोहरा कर कहता हूँ की उन लोगों को तुम उनके कर्मों के परिणामों से पहचानोगे.”
वैसे भी ये परिवार अपने अनुसरण करने वालों को कष्ट पहुंचाता आरहा है और उनको एक ऐसे गुरु या शिक्षा को पालन करने के लिए प्रवंचित कर रहा है जो उनके समानता, शांति, एकता, और अच्छाई लाने के उद्देश्य के विपरीत है और ये आपके मनमें उनके पिता द्वारा सिखाए गए आदर्शवाद की प्रभावकारिता के बारे में ही प्रश्न खड़ा करता है. तो इस समूह के सदस्यों से मेरा सवाल ये है के इन व्यक्तिओं पर विश्वास करने से कोई वास्तविक उम्मीद है या नही जबके ये सभी उद्देश्य तो इन दैविक रूप से संपूर्ण और प्रबुद्ध भूमिका मॉडल के द्वारा हासिल तो नही किया जा सकता है? इसके अलावा इस आंदोलन का सिर्फ दो ही पीढ़ी के बाद टूट जाना खुद में इस संगठन और उन व्यक्तिओं जो स्वयं को इस के साथ पहचान कराते हैं उनके विश्वसनीयता पर टिपण्णी है.
मेरे प्यारे दोस्त मुझे आशा है कि इस पोस्ट के जरिये मैंने आपको नाराज नही किया है या किसी तरह का चोट नही पहुंचाया है. इसके अलावा मैं नही चाहता के आप मेरी सामग्री की व्याख्या एक नफरत की चिट्ठी या चरित्र हनन के रूप में करो पर मैं सिर्फ ये चाहता हूँ के ये लोग सुरक्षा की झूठी भावना और एक पूरा और सार्थक जीवन की उपलब्धि के विषय में जो दावा कर रहे हैं उसके बारे में गंभीरता से सोचिए. आंदोलन के सकारात्मक पक्ष की तरफ देखें तो मानवीय सहायता उपलब्ध कराने की दिशा में कुछ सामाजिक लाभ हुआ है पर ऐसे अन्य समूह भी हैं जो राहत और सहायता प्रदान करने का महत्वपूर्ण काम करते हैं. इस सब के बाद ये सिर्फ एक बदला हुआ भेस हो सकता है जो धार्मिक या धर्मनिरपेक्ष संस्कृति की वकालत करता है और इसलिए इसमें आपको चारा, हुक, पंक्ति और भार लेने की जरूरत नही है. ये लोग केवल मरने वाले मनुष्य हैं जो आपको वो नही दे सकते हैं जो उनके जीवन के इतिहास पर आधारित होकर कहें तो खुद उनके पास नही है.
अंत में अगर आपके जीवन का मिसन प्रकाश को ढूँढना है तो मैं ये आशा करता हूँ के आपके अंदर का प्रकाश सच में अँधेरा ना हो जो इन आन्दोलनों के भीतर है और बदले में मैं आपको येशु के मार्गदर्शक प्रकाश ढूँढने का चुनौती देता हूँ जो हरेक मनुष्य के पथ को रौशन करता है.
मती ६:२२-२३
“शरीर के लिए प्रकाश का श्रोत आँख हैं. इसलिए यदि तेरी आंख ठीक है तो तेरा सारा शरीर प्रकाशवान रहेगा. किन्तु यदी तेरी आँख बूरी हो जाए तो तेरा शरीर अँधेरे से भर जाएगा. इसलिए वह एकमात्र प्रकाश जो तेरे भीतर है यदी अंधकारमय हो जाए तो वह अँधेरा कितना गहरा होगा.”
यहुन्ना ८:१२
“फिर वहाँ उपस्थित लोगों से येशु ने कहा,”मैं जगत का प्रकाश हूँ जो मेरे पीछे चलेगा कभी अँधेरे में नही रहेगा. बल्कि उसे उस प्रकाश की प्राप्ति होगी जो जीवन देता है.””
कैसे भगवान के साथ एक रिश्ता बनाएं
jesusandjews.com/wordpress/2012/01/10/कैसे-भगवान-के-साथ-एक-रिश्त/
अन्य संबंधित लिंक
jesusandjews.com/wordpress/2011/12/20/divine-light-mission/
Religions of the world: a comprehensive encyclopedia of beliefs and practices/ J. Gordon Melton, Martin Baumann, editors; Todd M. Johnson, World Religious Statistics; Donald Wiebe, Introduction-2nd ed., Copyright 2010 by ABC-CLIO, LLC. Reproduced with permission of ABC-CLIO, Santa Barbara, CA.
This sect has come to be known as Divya Sandesh Parishad or Divine Light Mission which had originally began as a means of finding enlightenment through knowledge and due to the controversial actions of its propagators there have been many things which have been questionably brought to the light regarding this movement.
Its founder, Guru Shri Hans Ji Maharaj, supposedly came to enlightenment by means of carrying another ones lamp as being under the influence of the Bhagavad Gita and the Sant Mat tradition as well as Arya Samaj.
Shri Maharaji’s message was that all religions are principally one which is irreconcilable for anyone who has an understanding of comparative religions.
jesusandjews.com/wordpress/2010/01/23/all-paths-lead-to-god/
However if this is true then there should be no further reason for him to make any religious distinctions or statements at all since essentially all religions are unified in their core beliefs and by making such a move to add to the richness of the mix only stirs up animosity and disunity among other religious practitioners who hold to a more exclusive view as being the only right road in life versus a convergent path. Furthermore if that be the case then why attempt to advance spiritual knowledge since the distillation of the process achieves the same reality? Therefore if you accept the guru’s viewpoint then essentially there is no good reason to make religious characterizations since we are all headed down to the same watering hole anyway and yet this sect has an individuated personality that signifies this cults identity contrary to a universalist view.
Nevertheless in defense of Hans Ram Singh Rawat he initially resisted towards identifying his movement as a recognizable organization but in time he eventually yielded to the pressure to do so which is understandable considering that he had a peculiarity of belief which is unique. Also this group has a conglomerated mixture of other religious views as well but still there is a particularism which sets it apart from being incorporated or absorbed under the branch of another religious movement by maintaining specific teachings and practices. Thus his concept of unity regardless of cast, creed or religion is only theoretical not practical.
Moreover this whole matter may appear as a progression to establishing peace but does the “ends” of just trying to find something that works somehow justify the “means” of sacrificing the most critical matters of existence regarding ultimate truth? Do we do obeisance and bow to the god of compliance and compatibility irregardless? Is it our personal right and objective to seek for a common solution or denominator towards achieving our own ultimate reality or is this something which is beyond the role of the creature in establishing a criteria for religious duty in respect to a transcendent or supreme being?
Peace is good and should be pursued to the best of our ability but to do so at all costs such as with the intermingling of all beliefs may be a conflict of interest to the creator who establishes the way of truth. In other words it is really not our place to erect another “Tower of Babel” as unifying all humanity under the common banner of our own personalized religious reality.
Additionally another point of contention is expounded by Guru Maharaji’s son and successor Prem Rawat who holds to the belief that the nature of mankind is generally good and this position grossly underestimates and denies the realities of evil in our society. We may have progressed technologically but the human race has not achieved advancements in ethical and moral values as this century has been the bloodiest era on human record. If goodness is a natural tendency of mankind then why does our society establish laws and government in order to manage and legislate rules so as to make people accountable instead of just trusting them to uphold a proper code of conduct? Could you imagine a society that just allowed people to do whatever they wanted to do? What do you think the outcome of such a practice would create? Furthermore if everyone was left to subjectively express their own idea of goodness then essentially goodness might mean different things for different people which would be catastrophic and chaotic.
The irony of these two philosophies of achieving peace and having goodness is conflicted in Shri Maharaji’s own family due to the fighting and argumentation in contending for power as seen displayed between Jagat Janani Mata Shri Rajeshwari Devi and her son Prem Pal Singh Rawat or Balyogeshwar. This whole concept of unity was abandoned when Balyogeshwar Param Hans Satgurudev Shri Sant Ji Maharaj married a non Indian or Westerner which alienated him from his family. Also this further scandalized the matter as Divine Light Mission which was to be a beacon of light was schismed in that Prem Rawat’s mother Mata Ji disowned him and appointed his older brother Satpal Maharaj (Satpal Singh Rawat, also called Bal Bhagwan Ji as his brothers successor.
To add to this controversy is the fact that Prem Rawat was first accepted and received by his family as the predecessor of his father, Hans ji, and so my question is who is the real guru here if either?
After this split Satpal Singh Rawat took over the Divine Light Mission in India and latter became the guru for the Manav Utthan Seva Samiti which is an off-shoot of the DLM and now he and his family are worshipped as divinity in living an excessive lifestyle. Thus his family has taken a free ride on the rickshaw of Indian life which in a sense has promoted a form of caste system towards inequality contrary to the egalitarian views of his father.
Anyway after the death of Guru Shri Hans Ji Maharaj his son Prem Pal Singh Rawat accepted the title of satguru as being the perfect Master but in reality he was anything but perfect. Initially his followers thought of him as the incarnation of the divine and yet many of them were disillusioned as he was seduced by the influence of western materialism in which he obtained luxury automobiles, multiple residences, etc. and even though these extravagant gifts were given to him by some of his followers it was nevertheless viewed as excessive as living the life of a millionaire.
In all fairness regarding his supposed divine status he is noted as going on record in his earlier years as denying his divinity but according to his groupies he was honored and worshipped without any denunciation from him. His title as being “The Lord of the Universe” and “Perfect Master” along with his supposed self acclaimed role as “The Savior of the World” appears to be a strong proclamation not merely of a respected and honored man but that of a demigod putting him in association with such characters as Jesus and the Buddha. Also during the Millennium festival in the Houston astrodome in 1973 he allowed 20,000 people to offer him worship as he sat on an elevated throne which shows the duplicity to his response as his behavior depicts him as being the Mahharajo or divine incarnation. Additionally this attitude is consistent with Satpal’s actions of acclaiming divinity which makes me wonder if Hans Ram Singh Rawat initially acted out his divine role only to reject and deny it publicly for the sake of avoiding more bad press or controversy.
Needless to say he failed to inaugurate a messianic millennial peace and this carnival was disastrous as the attendance was low along with being financially crippling. In time his credibility began to decline which required him to change his tactics on several occasions to accommodate his popularity. In response to this downturn he vacillated his actions in adapting to maintain his lifestyle by replacing his divine status to being just a teacher and exchanging his Indian wardrobe for a suit. However once he realized that this universal approach actually was not the right move then he proceeded to change back into his original costume.
So as his followers dwindled he manipulated his marketing strategy which caused him to abandon some of his followers who were a part of the original movement as he transitioned from a religious or spiritual organization to a more secularized self help program known as Elan Vital and The Prem Rawat Foundation.
In summary even though these brothers are on opposite poles of different continents they still share the common ability to be able to brain wash individuals by making them believe in something they are not. The bible forewarns others about falling into this trap of deception as it refers to false teachers, prophets and messiahs.
Mt 7: 15-20
15 “Watch out for false prophets(gurus). They come to you in sheep’s clothing, but inwardly they are ferocious wolves. 16 By their fruit you will recognize them. Do people pick grapes from thornbushes, or figs from thistles? 17 Likewise every good tree bears good fruit, but a bad tree bears bad fruit. 18 A good tree cannot bear bad fruit, and a bad tree cannot bear good fruit. 19 Every tree that does not bear good fruit is cut down and thrown into the fire. 20 Thus, by their fruit you will recognize them.
Anyway this family continues to victimize and dupe their adherents into following after a guru or a teaching which according to their practice is contrary to their intent of bringing about equality, peace, unity and goodness which should lead you to question the efficacy of idealism as preached by their father. So my question to the members of this group is whether or not there is any real hope in trusting these individuals considering that these objectives could not be achieved or obtained by these divinely perfect and enlightened role models? Additionally for this movement to break down in only two generations is really a commentary in itself on the credibility of this organization or any other subsequent association of which these individuals identify themselves with.
My dear friend I hope that I have no hurt or offended you over this post. Moreover I don’t want you to interpret my content as hate mail or character assassination but I just want you to seriously consider whatever claims these individuals are making in advocating a false sense of security concerning the achievement of a fulfilled and meaningful life. On the positive side of the movement there has been some social benefits towards providing humanitarian aid but there are other groups who also do a significant work in providing relief or aid. After all this could just be a disguise in order to advocate this whole religious or secular culture and therefore it does not necessitate you taking the bait; hook, line and sinker. These men are mere mortals who can not give you what they themselves do not have as based on their biographical histories.
In conclusion if your mission is to find light I hope that the light within in you is not really the darkness that is contained within these movements and in turn I would challenge you to seek out the guiding light of Jesus who lights every mans path.
Matthew 6:22-23
22 “The eye is the lamp of the body. If your eyes are good, your whole body will be full of light. 23 But if your eyes are bad, your whole body will be full of darkness. If then the light within you is darkness, how great is that darkness!
John 8:12
12 When Jesus spoke again to the people, he said, “I am the light of the world. Whoever follows me will never walk in darkness, but will have the light of life.”
Divine Light Mission Resources
Religions of the world: a comprehensive encyclopedia of beliefs and practices/ J. Gordon Melton, Martin Baumann, editors; Todd M. Johnson, World Religious Statistics; Donald Wiebe, Introduction-2nd ed., Copyright 2010 by ABC-CLIO, LLC. Reproduced with permission of ABC-CLIO, Santa Barbara, CA.