ये आधुनिक इस्लामी धार्मिक पुनरुत्थानवादी आंदोलन दावें करता है के ये इस्लाम को उसके प्राचीन स्थिति में बहाल करेगा. यह उस ‘अंत समय’ को लेकर आने के लिए भी प्रतिबद्ध है जिसके द्वारा सभी लोगों को इस्लाम को आत्मसात करने और इस्लाम के प्रति निष्ठा के साथ प्रस्तुत करने के लिए लाया जा सके.
अन्य रहस्यमय सूफी उपासनाओं के साथ साथ इस समूह ने भी एक ऐसे युग का उदघाटन करने का प्रयास किया है जो इस्लाम के ज्ञानों को दुनिया के सामने लेकर आने के प्रयास में लगे हैं और इसके वजह से इनमें से कुछ समूह ने मिशनरी रूप से धर्म परिवर्तन करने वालों को पाया है.
ऐसा लगता है के इसके संस्थापक मिर्जा गुलाम अहमद ने इस आन्दोलन को ईसाई धर्म की दिशा में एक विरोधी मिशनरी प्रतिक्रिया के रूप में आगे बढ़ाया है और इसका कारण ये हो सकता है के इसाइओं के बढ़ने की वजह से इस्लाम के बढ़ने में गिरावट आ रहा था और बदले में यही कारण हो सकता है के क्यों उन्होंने इस्लाम के लिए कम कट्टरपंथी या अधिक उदार दृष्टिकोण लिया था. तदनुसार यह हो सकता है कि उन्होंने खुद को मुहम्मद, येशु, मेहदी और यहां तक कि कृष्णा की एक अभिव्यक्ति होने के युगांत-विषयक दावें किए ताकि उने अपने सुधार किए गए इस्लामिक विचारधारा से अधिक लाभ मिल सके. लेकिन मैं ये नही समझ रहा हूँ के वो कैसे हिंदुओं, सीख, मुस्लिमों और इसाइओं को समझाते और एक जुट कर सकते हैं क्योंकि ये समूह अपने विचारों में बिलकुल ही विशेष हैं और वो कैसे अन्य धर्मों को इस समूह में सामिल कर पाते क्योंकी वो सिर्फ ऐसे ही कुछ धार्मिक आंकड़ों पर ध्यान दे रहे थे. यह सुखद लगता है कि इन समूहों को सुरु में निशाना बनाया गया था क्योंकि उनके भौगोलिक स्थिति को देखते हुए उनके अपने प्रभाव का सिमित रेंज था.
इसके अलावा समय के बीतने पर उनके भूमिका या पहचान का भी प्रगति हुआ क्योंकि सुरुवात में खुद को वो विश्वास को पुनः स्थापित करने वाले के रूप में देखते थे जिसको मुजद्दिद भी कहा जाता है पर बाद में वो खुद को मसीहा / महदी के रूप में देखने लगे और इसी के वजह से अंत में जाकर उन्होंने खुद को एक नवी के रूप में घोषणा किया. पर लाहौर के अहमदिया समूह ने एक नवी के रूप में उनके दावों को खारिज किया है, और इसका कारण शायद उत्पीडन हो सकता है, और उन लोगों ने कहा है के मिर्जा घुलाम अहमद के टिपण्णीओं को वास्तव में रूपक अर्थों में व्याख्या करने का इरादा था पर उनके शब्दों और कार्यों की वजह से इन बातों पर विश्वास करना संभव हुआ है जैसे की अहमदिया मुस्लिम समुदाय या क़दियानिओं/कदिआनी करते हैं के वो खुद को ही एक नवी के रूप में देखते थे जो रूढिवादी इस्लाम के लिए एक वास्तव समस्या है जो सिर्फ पैगम्बर मोहम्मद को अंतिम नवी के रूप में पहचानता है. इस विवाद के विषय में मिर्जा गुलाम अहमद का कहना ये था के प्रभावि क़ानून के हिसाब से या फिर एक विधायी नवी के आधार पर मोहम्मद का नवीपन ही अंतिम था पर अगर गुलाम अहमद द्वारा कुरान के बारे में समर्थन और पुनरीक्षण किए हुए विचारों को अगर देखें तो मेरा विश्वाश है की ’कोई नयी किताब या क़ानून न बनाने’ के बारे में उनका स्थिति संदिग्ध है. इसके अलावा महत्व की उनकी स्थिति को देखें तो उन्होंने यहाँ तक किया के जो उनके स्वयं के नविपन को स्वीकार नही करते उनको उन्होंने एक काफिर या अविश्वासी का संज्ञा दिया और इसको अगर व्यंग्यात्मक रूप से देखा जाए तो ये कहा जा सकता है के अगर कोई किसी और को काफिर कहके घोषित करता है तो इसका मतलब ये है के वो खुद ही एक काफिर या अविश्वासी है और ये बात उनके खुद के लिए ही पूरा हो गया जब उन्होंने मिर्ज़ा अहमद को एक बैग, काफिर या अविश्वासी के रूप में घोसणा किया क्योंकि उन्होंने अपने सबसे बड़े बेटी की शादी उनसे नही की थी.
उन्होंने यह भी कहा के उनके विहार अल्लाह से दैविक रूप में प्रेरित थे पर वास्तव में वह एक दुसरे भारतीय सुधारक सैयद अहमद खान से प्रभावित थे जिसमें कुछ ऐसे विचार भी सामील थे जो कहते थे के येशु का मृत्यु प्राकृतिक था और कलम का जिहाद तलवार के जिहाद की जगह ले रहा है और इसीलिए उनके बहुत से विचार सिर्फ उधार लिया गया था और वो इस आंदोलन का मौलिक विचार नही था. सैयद अहमद खान से अपनाया गया ये विचारधारा पारंपरिक इस्लामी जिहादी विचारों को चुनौती दे रहा है जैसे की ये अविश्वासिओं के खिलाफ एक पवित्र लड़ाई या शाब्दिक युद्ध के रूप में लागू होता है जो वास्तव में कुरान की शिक्षाओं पर ही आक्रमण है और ये मोहम्मद के कार्यों के बारे में भी प्रश्न चिन्ह खडा करता है जो उनके सैनिक अभियानों के सम्बन्ध में हमेशा रक्षात्मक नही थे. जिहाद को सिर्फ अच्छाई और बुराई के बिच में एक आतंरिक संघर्ष होने के रूप में प्रस्तुत करना कुछ ज्यादा ही सरलीकरण और ऐतिहासिक इस्लाम के लिए एक जबरदस्त निरिक्षण है. जिहाद दोनों आंतरिक/आध्यात्मिक रूप से लागू किया गया है और इसका बाहिरी रूप से अभिव्यक्ति भी किया गया है और जब आप इस दर्शन को बाहिरी रूप से लागू करते हैं तो आप अविश्वासिओं को राक्षसी करार देते हैं और इसके बात हमें ये देखने में मुश्किल नही होता है के इस्लाम धर्म के आगे बढाने और दूसरों के ऊपर अत्याचार करने में कुछ सम्बन्ध जरूर है. तो तलवार के वजाए मुंह या कलम से शत्रुओं का सामना करने वाला उनका विचार बिलकुल ही अद्वितीय है और पारंपरिक इस्लामी मूल्यों और शिक्षाओं का प्रतिनिधित्व नही करता है. इस आंदोलन के बचाव में मैं तहे दिल से इस बात से सहमत हूँ के इस्लाम की तरह एक बिलकुल ही गैर हिन्स्रक और निष्क्रिय दृष्टीकोण रखना चाहिए भले ही वो कट्टरपंथियो का सही प्रतिनिधित्वा नही करता है पर इन नए विचारों और तरीकों को अपनाने के वजह से ये आंदोलन पारंपरिक मुसलामानों के बिच विवादास्पद बन गया है. इस्लाम ने खुद को जीतने के स्थान में रखा है ताकि वो विश्व को अधीन में ले सके और लोगों के झुकाने के लिए अगर तलवार का इन्स्तेमाल भी करना पड़े तो वो करेंगे और लोगों को परिवर्तन करने के लिए दबाब डालने के लिए जरूरत पर्ने पर वो अनुनय और उत्पीडन दोनों कर सकते हैं ताकी इस्लाम राज्य बढ़ सके और इस बात को आज भी मुस्लिम देशों में अभ्यास किया जाता है. मैंने इस्लाम में हिंसा के बारे में एक और लेख लिखा है जो पवित्र लड़ाई या जिहाद का वकालत करने में इस्लाम के भूमिका का पुष्टि करता है.
इसके अलावा अहमदिया मुस्लिम जमात की स्थिति के विपरीत मैं इस बात से सहमत नही हूँ के इस समुदाय के दर्शन के माध्यम से इस्लाम को पूरे रूप से सुधार किया जा सकता है. आप कैसे किसी चीज को फिर से पा सकते हैं जो सुरुवात से कभी भी गुम ही नही हुआ था? सुधार का मतलब किसी विश्वास के प्रणाली को उसके अपने मूल स्थिति में पहुंचाना भी हो सकता है जो कुरान के आधिकारिक छंदों को चुनौती देता है जो सैन्य जिहाद का समर्थन करता है. इसीलिए कुरान के इन प्रेरणादायक और आधिकारिक छंदों को बदलना या पालन ना करना इश्वर का तिरस्कार करने जैसा है क्योंकी कहा जाता है के अल्लाह के इच्छा का ये एक निपुण मॉडल है. मुख्यतः मुस्लिम वैश्विक नजरिया से देखा जाए तो कुरान को फिर से एक बार और संसोधन या संपादन नही करना चाहिए और कुरान के किसी एक अंश को परिवर्तन करने का मतलब है विश्वास को त्याग कर पूरे कुरान के बारे में प्रश्न चिन्ह खड़ा करना. अगर किसी तरह हम कुरान को संशोधित करके उसके गैर हिंसा वाले स्थिति को स्वीकार भी कर लेते हैं, फिर भी किस अधिकार से कोई मोहम्मद के नवीपन पे प्रश्न खड़ा कर सकता है या फिर नए प्रकाश पाने के लिए अल्लाह से सीधा सम्बन्ध रख सकता है जो मिर्ज़ा घुलाम अहमद के नवी होने के स्थिति को और भी पक्का करता है? इसके अलावा जहां तक शांति प्राप्त करने का सवाल है, अगर कुरान के शिद्धान्तों उसके गैर हिंसा वाले स्थिति में संशोधित किया जाए तो इस बात की क्या गारंटी है के वो फिर से अपने हिन्स्रक प्रकृति में संशोधित नही किया जाएगा विशेष करके उस स्थिति में जब ये विश्व इस्लामी सिध्धान्तों के अनुरूप काम न करे?
अगर इस हाशिए समूह में कुछ सीमित सुधार भी किया जाए तो भी ये तो जरूरी नही है के इस आंदोलन के संपूर्ण या विश्वव्यापी दृश्य में ही सुधार हो जाए और दुनिया के धार्मिक परिदृश्य को ही बदलने में सफलता हासिल किया जा सके, और अगर ये सम्भव नही है तो मुख्यधारा के इस्लाम में तो ये कैसे हो सकता है. इसके अलावा विकास और शांति में प्रवेश करने के लिए इस आंदोलन से जो लोग अपेक्षा कर रहे हैं वो तो पूरी तरह से चुनौती से भरा है क्यों की दुनिया की पिछली सदी तो अभी तक के सब से बड़े परिमाण में रक्तापात से धुला हुआ है जिसमें इस्लामी दुनिया ने भी अपना भूमिका निभाया है और इसमें उनके स्वयं के गुठों का भी रक्तपात सामिल है. हाल ही में हमने एक ऐसा प्रक्रिया देखा है जिसको ‘अरब स्प्रिंग’ कहा जाता है जिसमें इन लोगों को प्रमुख मुस्लिम राष्ट्रों के तहत अत्याचार किया जाता है और ये लोग उन इस्लामी सरकारों और देशों के खिलाफ हिंसा के साथ विरोध कर रहे हैं जिन्होंने शान्ति कायम करने के सिवाय अपने ही लोगों का दमन कर रहे हैं.
शायद ये समूह अपने साथ को सिर्फ एक क्रमिक या विकासवादी प्रगति के रूप में देखते हैं जो समय के साथ और ज्यादा अधिक स्पस्ट हो जाएगा. लेकिन इस बात का सबूत कहाँ है और मिर्जा गुलाम हजरत अमाद के प्रभाव पर आधारित ऐसा कोई सहनशीलता का चिन्ह नही है जो दूसरों को भी इस्लामी परत में समेट कर ले जा सके और किसी प्रकार के अंतिम विजय या मानव जाती के विजय विधान के रूप में ले जा सके जिसमें प्रेम और शान्ति का चिन्ह हो और ये इस्लाम के बैनर के तहद हो. इसके अलावा अगर अभी के आधुनिकता के दृष्टी से भी देखा जाए तो प्रौद्योगिकी और सूचना के युग के माध्यम से वैश्वीकरण होने पर भी नफरत और आतंकवाद के कृत्य अभी तक नही थमे हैं. अभी तक इस बात का पर्याप्त सबूत नही मिला है के उतोपियन नए विश्व व्यवस्था में पर्याप्त प्रगति देखने को मिलेगा.
इसके अलावा कट्टरपंथी इस्लाम अभी भी इस्लामी आबादी का १० प्रतिसत जितना है जिसमें १६०,०००,००० अनुयायी हो सकते हैं और इस में से बहुमत मुसलमान इस आस्था के गैर – मुसलमान अभिव्यक्ति को अहिन्स्रक रूप से देखना चाहते हैं पर ये फिर भी अपनी दुर्दशा में ही विफल हो जाएगा वो भी रूढ़िवादी विश्वासियों के नियंत्रण और स्वीकृति की वजह से क्योंकि वो एक भयावह धर्म के अंतर्गत हैं. इसके अतिरिक्त जब तक शक्ति और क्षमता को बराबर करने वाला जिहादी दृश्य कायम रहेगा, ये केवल इस बात का पुष्टि करता है के ये अल्लाह के संप्रभु और अनुमोदक अनुमति के अंतर्गत है. अंतिम विश्लेषण में इस शांतिवादी समूह को उसी तरह से कारवाही किया जाएगा जिस तरह से इस्लाम और कई सारे गैर हिन्स्रक और ना मिलने वाले समूहों के साथ किया है जिसमें ईसाई धर्म भी सामिल है जिसने एक गैर जुझारू दृष्टिकोण लिया है जैसे के अपने शत्रुओं से प्यार करना और दूसरा गाल आगे करना. इन सब के बाबजूद अहमदी पहले से ही ये बात जानते हैं और उत्पीडन और दवाव के अनुरूप वो मूलधार इस्लाम में लौटना चाहते हैं क्योंकि उन्हें इस्लामी भाईचारे में नही माना जाता है और पाकिस्तान और साउदी अरब में उन्हें गैर मुस्लिम माना जाता है.
मुझे अहमदिया स्थिति पर हमदर्दी है और जहां तक उनके गैर हिंसक प्रदर्शनों का सवाल है, मैं ये आशा करता हूँ के वो सफल हों फिर भी मैं इस विषय में चिंतित हूँ के ये समूह अपना उद्देश्य प्राप्त करने में सफल होगा विशेष करके उन मुस्लिम प्रमुख देशों में जहां इस दर्शन का अपनाना सबसे ज्यादा जरूरी है. इसके अलावा भले ही इस शाखा को इस्लाम के दुश्मन के रूप में सताया गया है और इसको अपधर्मी और अविश्वासी के रूप में जनाया गया है; इसके बाबजूद अभी भी अहमादिओं में इस्लाम के उनके प्यार को पूरी तरह से तोड़ने के जैसा प्रतिरोध है भले ही मुस्लिम उनसे बहुत ज्यादा नफरत करते हैं और त्यागते हैं? यह मुझे एक पस्त पत्नी का याद दिलाता है जो अपने पति पर निर्भर है और अपना शादी छोडना भी नही चाहती पर उसके अपमानजनक पति के लिए बहाने बनाती है.
अब कुछ विवादास्पद मामलों के बारे में बात करते हैं जो मिर्जा गुलाम अहमद को इस्लाम से अलग करता है और वो मसीह के शाब्दिक वापसी से सम्बंधित है जो इस्लामी सूत्रों की मानें तो इस समय के अंत में होगा पर मिर्ज़ा गुलाम अहमद का मानना है के ये सिर्फ एक रूपक है और वो ही मसीह के अंतिम आगमन के अवतार हैं. अब इस बात का कितना संभावना है जब के ईसाई ने उन्हें अपना मसीहा नही माना है और मुस्लिम दुनिया ने भी उन्हें मेहदी के रूप में स्वीकार नही किया है और हिंदुओं के बहुमत ने भी उन्हें कृष्ण के किसी दिव्य अवतार के रूप में स्वीकार नही किया है. वहाँ पर एक विशाल अनुसरण होने के लिए उनके प्रस्ताव और प्रभाव सबको स्वीकार होना चाहिए पर उन्होंने दुसरे धर्मों के इन अनुयायिओं के दिलों पर ज़रा सा भी छाप नही छोड़ा इसलिए ये छोटा सा आंदोलन एक संकृति का अंश बनके रह गया है जो मुख्यतः असंतुष्ट मुसलमानों से भरा हुआ है.
विवाद का एक अन्य मुद्दा भी है जो येशु के क्रूश पर मृत्यु से सम्बन्ध रखता है और कहता है के येशु ने क्रूश पर दुःख नही भोगा और ये सिर्फ एक भ्रम है जो अल्लाह के प्रकृति पर ही सवाल उठाता है के वो झूठे और धोखेबाज हैं और ये अधिक रूप से अगुढ़वाधि विचारधारा से मिलता है. फिर भी मिर्जा गुलाम अहमद ने ईसाई धर्म के बारे में एक वैकल्पिक दृष्टिकोण अपनाया था जो उनके समय में ईसाई के आलोचकों के बीच बहुत ही प्रशिक्षित था और ये पूरी तरह से बेकार सिद्धांत था जो ये कहता था के येशु ने अपने मृत्यु से उभरने के लिए अन्तिम परिणाम को ही धोका दिया और इसी वजह से वो प्रशिक्षित और अनुभवी मृत्युदंड देने वाले के क्रूर और भीषण सतावट से बच गए. आजकल ये बेहूशी सिद्धानत पूरी तरह से फीका पड गया है और इसका वास्तव में ईसाई के आलोचकों में भी बहुत कम मानने वाले हैं क्योंकि इंसान का पुनर्जीवित होना तो वास्तविक रूप में पूरी तरह नामुमकिन है. मुस्लमान कभी भी येशु के मृत्यु को स्वीकार नही करेंगे और इसको हमेशा इश्वर के हार के रूप में ही देखेंगे फिर भी बाइबल और लिखित परिपेक्ष्य की मानें तो ये पूरा विचार पुनर्जीवित होने के विजय पर केंद्रित है जो मसीह के विजयी प्रणाली से सम्भंधित है और छुडाए गए विश्वासिओं को इश्वर के न्याय और दया का शानदार प्रदर्शन के रूप में माना गया है. मैंने इस मुद्दे के बारे में कुछ लेख लिखे हैं जो इस दृष्टिकोण की पुष्टि करने में मदद करता है.
Crucifixion of Jesus Christ and Islam
लेकिन दूसरी ओर ये पूरी बात उस भारतीय लोककथा से सम्बंधित है जो कहता है के येशु ठीक होगए और उन्होंने अपना बांकी जिंदगी इसराइल के खोए हुए लोगों को खोजने में कश्मीर में बिता दिया. पर येशु का इस मौत को हारने वाले काम करके और फिर यहुदिओं को ढूँढने के लिए भारत में बस जाने वाले बात का कोई आधार नही है और इसका दा विन्ची कोड और येशु के गूढ़ज्ञानवादी सुसमाचार के साथ समानताएं हैं जो संसार के अन्य भागों में होने के सम्बन्ध में है जैसे के मोर्मोनिस्म का मानना है के येशु अमेरिका गए और उन्होंने मूल अमेरिकी लोगों को सिखाया जिनको इसराइल का खोया हुआ जनजाति माना जाता था. पूरे दुनिया का ख़याल करके कहें तो यहुदिओं का प्रवास बहुत महान और विशाल था और उन लोगों के भारत आने के बाबजूद भी इस बात का कोई पुख्ता सबूत नही है के उन्हें येशु के समय में उस जगह का स्थानीय किस चीज ने बना दिया. अगर ऐसा होता तो उत्तरी इसराइल मुख्य रूप से विदेशी राष्ट्रों के राज्यों में कब के मिला दिए गए होते जिसमें एकीकृत, कसदियों / मादियों, पारसी और यूनानी सामिल होते. हालांकि इनमें से कुछ देशों ने भारत में अपना राज्य बढ़ाया पर इसका मतलब ये नही है के ये जनजाति उस जगह पर प्रचलित थे.
मिर्जा गुलाम अहमद और इस्लाम की मान्यताओं में एक और आपति ये है के वो लोग येशु को सिर्फ पुराने करार के एक भविष्यवक्ता के रूप में मानते हैं जो मूसा के व्यस्वस्था में थे जो सिर्फ आंशिक रूप से सही है पर एक भविष्यवक्ता होने के साथ साथ उनका काम और मंत्रालय संक्रमणकालीन था जो उनके मसीहा होने के साथ साथ एक इश्वर, राजा और पुजारी के रूप में एक नया युग लेकर आना चाहता था. फिर कहा जाए तो मुक्ति के ये उम्मीदें मूल रूप में पूर्व ईसाई है और इसका मूल आधार पुराना करार है जिसका किसी भी तरह का ईसाई प्रभाव से बचाने और ख़याल रखने वाले यहूदी लोग थे और उन लोगों ने अपने मंत्रालय के प्रभावकारीकता को बचाए रखने के लिए उसके ग्रंथों को हेरफेर करने का स्वतंत्रता अपना लिया. इस बारे में मैंने एक लेख लिखा है जो नए युग और व्यवस्था को लाने में येशु के भूमिका के बारे में पुष्टि करता है.
अब आगे बढते हुए अगर मिर्जा घुलाम अहमद के एक “’नवी’ होने के बारे में बात करें तो उन्होंने कुछ ‘भविष्यवाणी’ तो अवश्य किए हैं और अगर बाइबल के हिसाब से कहें तो किसी भी भविष्यवक्ता का ”परिक्षण उस बात से होता है के उसके भविष्यवाणी पूरा हुए या नही और अगर पूरा नही हुए तो उस भविष्यवक्ता को एक ‘झूठे नवी’ के रूप में ठहराया जाता है. लेकिन घुलम अहमद के कई सारे भविष्यवाणी काफी संदिग्ध हैं और इस बात की जिम्मेदारी लेने के सिवाए उनके अनुयायिओं ने उस बात को अधूरे या आंशिक रूप से पूरा होने के जैसा बताया या फिर उन बातों पर कोई सर्त या रूपक रख दिया. इन अनुयायिओं ने अपने नेता के असफल भाविश्यवानिओं के बारे में बहुत सारे बहाने बनाएँ जैसे के वो भविष्यवाणी जो अब्दुल्ला अथम, एक वादा किया बेटा, मोहम्मदी बेगम, क़दियन के महामारी और मुल्वी साना उल्लाह अमृतसरी के दोहरे प्रार्थना से सम्बन्धीत हैं.
इसके अलावा यहां तक कि अपने ही परिवार के सदस्यों में से कुछ ने उनके नबी होने के धोखाधड़ी के दावा को त्याग दिया जिसमें उनकी पहली पत्नी भी सामिल थी जिन्होंने उनको इसी मामले के लिए तलाक भी दे दिया. इसीलिए जो लोग उनके बहुत ही करीब थे उन्होंने भी उनके नवी होने के बात के मुखौटे के आरपार देखा और इन बातों को अनदेखा करना तो तथ्यों का बेईमान मूल्यांकन होगा. इसके अलावा मिर्जा गुलाम के मसीहा होने के पूरे विचार यीशु के होठों से ही भविष्यवाणी होगया था के अंतिम दिनों में ऐसे अवस्था सिर्जना होंगे पर इसका परिणाम वैसा नही होगा जैसा के ये समूह उम्मीद कर रहे हैं.
मती: २४:२३-२५
‘या ‘वह रहा मसीह’ तो उसका विश्वास मत करना. मैं यह कहता हूँ क्योंकी कपटी मसीह और कपटी नवी खड़े होंगे और ऐसे ऐसे आश्चर्य चिन्ह दिखाएंगे और अद्भूत काम करेंगे की बन पड़े तो वह चुने हुए को भी चकमा दे दें. देखो मैंने तुम्हे पहले ही बता दिया है.’
मसीहा की वापसी के पहले दिखाई देने वाली उपस्थिति होगी और इसका सूर्या या चंद्र ग्रहण से कोई लेना देना नही है जो बात गुलाम अहमद के बातों में थी.
मती २४:३०
‘उस समय मनुष्य के पुत्र के आने का संकेत आकाश में प्रकट होगा. तब पृथ्वी पर सभी जातिओं के लोग विलाप करेंगे और वे मनुष्य के पुत्र को शक्ति और महिमा के साथ स्वर्ग के बादलों में प्रकट होते देखेंगे.’
सारांश में कहा जाए तो गुलाम अहमद नें अपना बुलावा विश्व समुदाय के इस्लाम में एक शांतिपूर्ण / प्यार का समाधान लाने की कोशिश के रूप में देखा और इसके लिए उन्होंने एक सुधारे हुए इस्लाम को दुनिया के समाज के सामने पेश करना चाहा पर बहुमत ने इस बात को हरकत में नही लाया. इसके अलावा इस्लाम आजकी तारिक में भी सबसे अधिक आबादी वाला धर्म बन्ने में असफल रहा है हालांकि अभी के समय में प्रसव और धार्मिक अभिव्यक्ति के दमन के माध्यम से ये धर्म विकास दर के मामले में सबसे आगे बढ़ गया है लेकिन सुधार के प्रयासों के माध्यम से ये नही हो रहा है.
अगर येशु के शब्दों में ही कहा जाए तो उनकी सारी बातें अभी तक पूरा होता आरहा है, घुलाम अहमद ने ये कहा है के येशु खुद के समय से ही कई सारे मसीहा के रूप में आए हैं और गुलाम अहमद का ऐसा दावा करना पूरी तरह से अंत के समय में एक मसीहा से जैसा उम्मीद किया जाता है उससे कम है. इसके अलावा ये सोचना के वो कुछ ऐसा कर पाएंगे जो मोहम्मद ने इस्लाम के लिए ‘स्वर्ण युग’ लाने के लिए नही कर पाए एक बहुत ही बड़ा चुनौती है और खुद को नवी मोहम्मद से ऊपर बताना एक मुसलमान के लिए अकल्पनीय है.
अंत में अगर कहा जाए तो आपका शान्ति प्राप्त करने का इच्छा और भगवान की पूजा बनाए रखने की इच्छा को पूरा किया जा सकता है पर इस्लाम धर्म के माध्यम से नही. क्या आपने कभी गौर किया है कि “प्यार” शब्द अजीब तरीके से अल्लाह की प्रकृति और चरित्र का वर्णन से अनुपस्थित है और हमारी आत्मा और नैतिक होश में हमें ये पता है के यही वो व्यवहार है जो हमें दूसरों के साथ करना चाहिए और इस बात को हमारा दोषि होश भी साबित करता है जब हम इस बात को व्यवहार में उतारने में असफल होते हैं. हम प्यार की सुंदरता को मानवीय रिश्तों के सबसे अच्छे रूप में देखते हैं और इस क्रिया को अल्लाह के बड़े नाम के साथ और उनके बेहतर गुणों में ना पाना असहनीय है क्योंकि हम तो उनके ही बनाए गए जीव हैं और इस्लामी धर्मशास्त्र में ये बात तो बिलकुल स्वीकार नही किया जा सकता है. वैसे भी ये सभी गुण जो आप खोजने के लिए आवश्यक समझते हैं और इच्छुक हैं, ये सब ईसाई धर्म के शिक्षा में सामिल है और ये तो हमें सीखाता है के हमें सभी से प्यार करना चाहिए चाहे वो हमारे विरोधी ही क्यों न हो. मैं आप लोगों को सुसमाचार पढ़ने और खुद के लिए उस इतिहास के येशु को ढूंढ निकालने के लिए प्रोत्साहित करता हूँ जो इस्लामी या अह्मद्दिया येशु से अलग हैं.
जीवन के पहले सिद्धांतों में जो हमारे जीवन के लिए आंतरिक रूप से बहुत ही जरूरी है, ये कहना तो तार्किक निष्कर्ष होगा के शांति और प्रेम जीवन के बहुत ही जरूरी बुलावट है और दुष्ट और बुरे समाज जिसमें हिंसा का प्रभुत्व है उसको हमारे जीवन में नही होना चाहिए. येशु हमें इश्वर और एक दुसरे के साथ शान्ति देने के लिए शान्ति के राजकुमर के रूप में आए और उनके मंत्रालय का फल उनके विश्वासिओं के जीवन में जिन्दा है जैसे के हम सबूत के रूप में विशाल और वैश्विक रूप में अस्पतालों और अनाथालयों के स्थापना के रूप में मानवीय प्रयासों को देख रहे हैं. ईसाई धर्म जीवन को बढ़ाना चाहता है उसे उन्मूलन नही करना चाहता. तो इस्लामी विचारधारा के अनुरूप ईसाई नैतिकता का इच्छा करना बेतुका है क्योंकि यह एक गोल छेद में एक वर्ग खूंटी फिट करने की कोशिश करता है. तो अहमादिओं के लिए प्रेम, शांति, सहानुभूति, क्षमा जैसे ईसाई मूल्यों को मानना बाईबलिय येशु को कुरान से ज्यादा अधिक अधिकार देने जैसा है. परंपरागत इस्लाम का साथ तोड़ना परिवर्तन की दिशा में पहला बड़ा कदम है और अगर आप के पास ऐसा करने का हिम्मत है और आप इस्लामी समाज से अस्वीकृति का सामना कर सकते हैं तो मैं आपसे ये अनुरोध करना चाहता हूँ के शान्ति के अपने खोज में क्या आप रास्ते में थोडा और दूर तक नही जा सकते हैं?
अंत में गुलाम अहमद ने खुद को एक झूठे मसीहा या ईसाई के लिए दज्जाल के रूप में प्रतिनिधित्व किया है और मुसलामानों के लिए वो अल महदी न होकर ‘गुमराह करने वाला’ हैं. शान्ति का वादा पूरा करने में उनका पहला पीढ़ी ही असफल रहा है क्योंकि उनका पहला आंदोलन ही सैद्धांतिक विवादों और उत्तराधिकार के ऊपर विभाजित, कुचला और टूटा हुआ था तो वास्तव में कहें तो इस आंदोलन के लिए विश्व स्तर पर शान्ति का मानक बनाने का कितना आशा है जब के इसके अभिनेता भी इसके स्क्रिप्ट और भूमिका निभाने के लिए सहमत नहीं हो सकते हैं?
मेरे दोस्त मुझे आशा है कि आप इस सन्देश को उस रूप से नही ले रहे हैं की आपको कोई नुक्सान या शरण हो. अगर आपको मेरे शब्दों में हिंसा के जैसा अनुभूति होता है तो मैं आपसे माफ़ी मांगना चाहता हूँ. मैं समझता हूँ कि आप शायद पहले से ही अपने विश्वासों के लिए अनावश्यक रूप से पीड़ित हैं और मैं आपको और चोट पहुंचाने या अपमान करने के लिए कुछ नही करूँगा. मैंने अपनी बात इतना मेहनत करके इसलिए रखा है क्यूंकि मैं आपके अमर आत्मा के लिए चिंतित हूँ और मैं ये प्रार्थना करता हूँ के इस लेख के माध्यम से इस आंदोलन के झूठे और अतिरंजित दावों की बारे में आपके हृदय में कुछ बता सकूं. मैं आपके शांति और प्रेम के लक्ष्य की सराहना करता हूँ पर मेरा सवाल ये है के आपने ये सब पाने के लिए जो दावा किया है उसका श्रोत क्या है. इश्वर भला करे.
यहुन्ना १६:३३
मैंने ये बातें तुमसे इसलिए कहीं के मेरे द्वारा तुम्हे शान्ति मिले. जगत में तुम्हे यातना मिली है किन्तु साहस रखो, मैंने जगत को जीत लिया है.
यहुन्ना १४:२७
मैं तुम्हारे लिए अपनी शान्ति छोड़ रहा हूँ. मैं तुम्हे स्वयं अपनी शान्ति दे रहा हूँ पर तुम्हे इसे मैं वैसे नही दे रहा हूँ जैसे जगत देता है. तुम्हारा मन व्याकुल नही होना चाहिए और न ही उसे डरना चाहिए.
कैसे भगवान के साथ एक रिश्ता बनाएं
jesusandjews.com/wordpress/2012/01/10/कैसे-भगवान-के-साथ-एक-रिश्त/
अन्य संबंधित लिंक
jesusandjews.com/wordpress/2012/03/06/ahmadis/
Religions of the world: a comprehensive encyclopedia of beliefs and practices/ J. Gordon Melton, Martin Baumann, editors; Todd M. Johnson, World Religious Statistics; Donald Wiebe, Introduction-2nd ed., Copyright 2010 by ABC-CLIO, LLC. Reproduced with permission of ABC-CLIO, Santa Barbara, CA.
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